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________________ 542 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तिर्यग्वातेषु च प्रतिपत्त्यप्रतिपत्तीषत्प्रतिपत्तिभेदाभावप्रसंगश्न, श्रोत्रस्य गच्छतस्तस्कृतोपकाराद्ययोगात् / नापि शब्दस्य श्रोत्रदेशागमनसम्भवः, गुणत्वेन तस्य निष्क्रियत्वोपगमाद् आगमने वा सक्रियत्वाद् द्रव्यत्वमेव / ___ अथापि स्याद्-न आद्य एवाकाशतद्वेणुमुखसंयोगात् समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणादुद्भूतः शब्द: श्रोत्रेरणागत्य सम्बध्यते येनायं दोषः स्यात् , अपि तु जलतरंगन्यायेनापरापर एवाकाश-शब्दा. दिलक्षणात समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणादुपजातस्तेनाभिसम्बध्यत इति / नन्वेवं बाणादयोऽपि पूर्व: पूर्वसमानजातीयक्षणप्रभवा अन्ये एव लक्ष्येणाभिसम्बध्यन्त इति किं नाभ्युपगम्यते ? तथा च क्रियायाः सर्वत्राभाव इति क्रियावद् द्रव्यम्' इति द्रव्यलक्षणं न क्वचिद् व्यवतिष्ठेत / अथ प्रत्यभिज्ञानाद् बाणादौ नित्यत्वसिद्धयं कल्पना / नन्वेवं शन्देऽपि मा भूदियम् , तत्राप्येकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञानस्य 'देवदत्तोच्चारितं शब्दं शणोमि' इत्येवमाकारेणोपजायमानस्याऽबाधितस्वरूपस्यानुभवात् / न च लनपुनर्जातकेश-नखादिष्विव सदृशापरापरोल्पत्तिनिबन्धनमेतत्प्रत्यभिज्ञानमिति वक्तु शक्यम् , बाणादावपि तस्य तथात्वाऽविशेषात् / (नेत्रवत् ) श्रोत्र में भी अप्राप्यकारिता का प्रसंग होगा। फलतः, नेत्र प्राप्यकारी है क्योंकि बाह्येन्द्रिय है, उदा० त्वचाइन्द्रिय' इस अनुमान का हेतु श्रोत्र में साध्य का द्रोही बन जायेगा। यदि श्रोत्र और शब्द में संयोग संबंध की कल्पना करेंगे तो उसमें संभवित दो प्रकार के प्रश्न होंगे-A श्रोत्र शब्ददेश में जाकर उसमें संबद्ध होता है या B शब्द श्रोत्रदेश में आकर श्रोत्र से संबद्ध होता है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि आपके मत में श्रोत्रेन्द्रिय तो धर्माधर्म से संस्कृत कर्णशष्कुली से अभिव्याप्त आकाशभागरूप ही है जो निष्क्रिय होने से दूर देशोत्पन्न शब्द के पास जा नहीं सकता, न तो ऐसी प्रतीति किसी को होती है / फिर भी श्रोत्र की गति मानेंगे तो दूर देशोत्पन्न शब्द और श्रोत्र के मध्यवर्ती अन्य अन्य सभी शब्दों के साथ भी पक्षपात के विना श्रोत्र का सम्बन्ध होने से उन सभी शब्दों के ग्रहण का प्रसंग होगा। किन्तु यह अनुभवविरुद्ध है। तथा कर्णदेशाभिमुख वात का संचार होने पर शब्द की स्पष्ट बुद्धि होती है, कर्णदेश विरुद्ध दिशा में पवन का झपाटा होने पर शब्द सुनाई ही नहीं देता, और तिरछी दिशा में ( न अभिमुख और न प्रतिमुख किन्तु मध्यवर्ती दिशा में ) वातसंचार होने पर शब्द अस्पष्ट सुन पड़ता है यह अनुभव सिद्ध है इसकी संगति आपके मत में नहीं होगी क्योंकि शब्द में जाने वाले श्रोत्र को उन वातों से कोई उपकार-अपकार तो होने वाला है नहीं। B तथा आपके मत में शब्द गुणात्मक होने से श्रोत्र देश में उसके आगमन का असम्भव है, यदि फिर भी उसका आगमन मानेंगे तो सक्रियता से ही द्रव्यत्व की सिद्धि हो जायेगी। [ जलतरंगन्याय से अनेक शब्दों की कल्पना सदोष ) यदि यह कहा जाय-शब्द की उत्पत्ति में आकाश समवायी कारण, आकाश और वेणु का मुख से संयोग असमवायिकारण है और निमित्त कारण है वात, इन से जो प्रथम शब्द उत्पन्न होता है वही श्रोत्र के पास आ कर सम्बद्ध होता है ऐसा हम नहीं मानते जिससे कि द्रव्यत्व प्रसंग हो / किन्तु जल में जैसे एक से दूसरे तरंग होते हैं उसी तरह एक से दूसरे दूसरे शब्द उत्पन्न होते हुए श्रोत्रदेश में भी समवायीकारण आकाश, असमवायिकारण पूर्वशब्द और निमित्तकारण वात से नया शब्द उत्पन्न होता है और उसी का श्रोत्र से सम्बन्ध होता है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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