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________________ प्रथमखण्ड-का० 1 आत्मविभुत्वे पूर्वपक्षः 535 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वात्' इत्युच्यमाने सामान्यादिना व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थ 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इति वचनम् / 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्युच्यमाने द्रव्य-कर्मभ्यामनेकान्तस्तनिवृत्त्यर्थ 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति' इति विशेषणम् / तदेवं भवत्यतोऽनुमानाद् बुद्धेर्गुणत्वसिद्धिः। प्रस्मदाधुपलभ्यमानत्वं च बुद्धस्तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानप्रत्यक्षत्वाद् नासिद्धम् / नित्यत्वं चात्मन: 'अकार्यत्वात . आकाशवत' इत्यनमानप्रसिद्धम् / अतो नित्यत्वे सत्यस्मदाद्यपलभ्यमानगरपाधिष्ठानत्वात' इति हेतुर्नाऽसिद्धः / नाप्यनैकान्तिकः, विपक्षेऽस्याऽप्रवृत्तेः / नापि विरुद्धः, विभुन्याकाशेऽस्य वृत्युपलम्भात् / नापि बाधितविषयः, प्रत्यक्षागमयोरात्मन्यविभुत्वप्रदर्शकयोरसम्भवात् / नापि प्रकरणसमः, प्रकरणचिन्ताप्रवर्तकस्य हेत्वन्तरस्याऽभावात् / इति भवति सकलदोषरहितादतो हेतोः सर्वगताऽऽत्मसिद्धिः / अतः कर्मरूप भी नहीं है / " इस प्रकार बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि में उपन्यस्त हेतु का आद्य अंश प्रतिषिध्यमान द्रव्य-कर्म भाव सिद्ध हुआ / दूसरा अंश सत्तासम्बन्धित्व यह भी बुद्धि में असिद्ध नहीं है, क्योंकि बुद्धि के विषय में 'सत्' ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है। 'सत्ता ही स्वतंत्ररूप से सिद्ध नहीं' ऐसा नहीं कह सकते, स्वतन्त्र सत्ता का प्रतिपाद्य प्रमाण मौजूद है जैसे-जिसके भिन्न भिन्न होते हुए भी जो अभिन्न रहता है वह उससे स्वतन्त्र होता है, उदा० वस्त्रादि के भिन्न भिन्न रहते हुए भी अभिन्न रहने वाला देह / इसी तरह बुद्धि भिन्न भिन्न होते हुए भी सत्ता भिन्न नहीं होती, क्योंकि द्रव्य-गुणादि भिन्न भिन्न होते हुए भी 'सत्-सत्' ऐसा सत्ता का अनुगत अनुभव और संबोधन होता : हुआ दिखता है। यदि सत्ता द्रव्यादि से भिन्न (स्वतन्त्र) न होती तो ऐसा अनुगत अनुभव नहीं होता। इस प्रकार स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध हुयी, और उसके साथ बुद्धि का सम्बन्ध भी सिद्ध है, क्योंकि सत्ता से बुद्धि में वैशिष्ट्य का अनुभव प्रतीत होता है। जिससे जिसमें वैशिष्ट्य अनुभव होता है वह उसके साथ सम्बद्ध होता है जैसे दण्ड देवदत्त के साथ सम्बद्ध होने पर 'दण्डवाला देवदत्त' ऐसा वैशिष्ट्य अनुभूत होता है। बुद्धि में भी सत्ता के द्वारा 'सत्' ऐसा विशिष्टानुभव होता है अतः सत्ता बुद्धि के साथ सम्बद्ध है यह सिद्ध हुआ। [ हेतु में असिद्धि आदि का निरसन ] बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि के लिये उपन्यस्त हेतु में 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वात्' इतना ही यदि कहा जाय तो जातिओं में हेतु रह जाता है अतः वहाँ साध्यद्रोहिता दोष के निवारण के लिये 'सत्तासम्बन्धित्व' भी कहना आवश्यक है, जातिओं में सत्तासम्बन्धित्व' नहीं है। सिर्फ 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इतना ही यदि कहा जाय तो द्रव्य और कर्म में भी वह रह जाने से साध्यद्रोहिता फिर से सावकाश होगी, उसके निवारण के लिये 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मत्व' कहना आवश्यक है. दव्य में द्रव्यत्व का और कर्म में कर्मत्व का प्रतिषेध शक्य नहीं है। इस प्रकार के अनुमान से बुद्धि में गुणात्मकता सिद्ध हुई / अब जो बुद्धि के अधिकरण द्रव्य को व्यापक सिद्ध करने वाला मूल अनुमान है उसमें जो अस्मदाद्युपलभ्यमानत्व यह हेतु अंश है उसकी भी चिन्ता की जाती है कि वह भी असिद्ध नहीं है क्योंकि बुद्धि का प्रत्यक्ष, बुद्धि के ही अधिकरण में समवेत उत्तरकाल में उत्पन्न अनुव्यवसायनामक ज्ञान से होता है / नैयायिकों के मत में ज्ञान को उत्तरकालीन समानाधिकरण ज्ञान से प्रत्यक्ष, माना गया है / हेतु का दूसरा अंश है नित्यत्व, उसकी सिद्धि के लिये यह अनुमान प्रयोग है-आत्मा नित्य है क्योंकि वह कार्यरूप नहीं है, उदा० आकाश / इस प्रकार 'नित्य होते हुए हम लोगों को
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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