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________________ 530 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नामनैकान्तिकता, दृष्टान्तस्य च साध्यविकलतेति / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थो निःसारतयोपेक्षितः / प्रतः ईश्वरसाधकस्य तन्नित्यत्वादिधर्मसाधकस्य च प्रमाणस्याभावात् "क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयरपरामष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः" [ यो० द० 1-24 ] इत्यादि सर्वमयुक्ततया स्थितम् / अतो भवहेतुरागादिजयात् शासनप्रणेतारो जिनाः सिद्धाः / अतः सुव्यवस्थितमेतद भवजिनानां शासनम्' इति / [ईश्वरकर्तृत्ववादः समाप्तः ] ननु यदि तेषां भवनिबन्धनरागादिजेतृत्वं तदा शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, तज्जयानन्तरमेवा. पवर्गप्राप्तेः शरीराभावे वक्तृत्वाऽसम्भवात् / अथ रागादिक्षयानन्तरं नापवर्गप्राप्तिस्तहि रागादिजयो न भवक्षयलक्षणापवर्गप्राप्तिकारणम् , न हि यस्मिन सत्यपि यन्न भवति तत् तदविकलकारणं व्यवस्थापयितुं शक्यम् , यवबीजमिव शाल्यंकुरस्य / अथ निरवशेषरागाद्यजयाद् अपवर्गप्राप्तेः प्रागेव तत्प्रणेतृत्वाददोषः, नन्वेवं तच्छाशनस्य रागलेशाऽऽश्लिष्ट पुरुषप्रणीतत्वेन नैकान्तिकं प्रामाण्यं, कपिलादि. पुरुषप्रणोतस्येव इत्याशंक्याह सूरिः-ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति / [ भवविजेताओं का शासन-यह कथन सुस्थित है ] परवादी ने सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये जितने अनुमान प्रयोग किये हैं उन सभी में यदि सामान्यत! 'कोई एक सर्वज्ञ' पुरुष की सिद्धि अभिप्रेत हो तब तो हमारे प्रति वैसा अनुमान प्रयोग करना शोभायुक्त नहीं क्योंकि सर्वज्ञवादी हमारे प्रति उस में सिद्धसाध्यता दोष है / उन लोगों के प्रति ही वह शोभास्पद होगा जो सर्वज्ञ का अपलाप करते हैं, उदा० मीमांसक और नास्तिक / अब यदि ईश्वर को ही सर्वज्ञ सिद्ध करना चाहते हैं तब उक्त रीति से व्याप्ति की असिद्धि के कारण, सभी हेतु अनैकान्ति दोष से दूषित हो जाते हैं और दृष्टान्त भी साध्यशून्य बन जाते हैं। इस प्रकार पूर्वपक्षोक्तग्रन्थ का बहु भाग निरस्त हुआ। जो शेष है वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, असार है इसलिये उसकी उपेक्षा ही उचित है। उपसंहारः-ईश्वर का और उसके नित्यत्वादि धर्मों का साधक कोई भी प्रमाण न होने से, जो यह प्रारम्भ में पूर्वपक्षी ने कहा था-क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से अस्पृष्ट पुरुषविशेष ईश्वर हैइत्यादि, [ पु० 281], यह सब अयुक्त सिद्ध हुआ। फलत: भगवान् जिनेन्द्र संसारहेतुभूत रागादि के विजय से ही शासन के प्रणेता हैं यह सिद्ध हुआ / इसलिये मूलकारिका में ग्रन्थकार श्रीसिद्धसेनसूरिमहाराज ने जो यह कहा है 'भवजिनों का शासन' यह भलीभाँति ठीक ही सिद्ध हुआ। [ईश्वर कर्तृत्ववाद समाप्त ] [ 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं" पदों की सार्थकता] . शंका:-जिनेन्द्र भगवान यदि संसार के बीजभूत रागादि के विजेता हैं, तो उन में शासन का प्रस्थापकत्व सगत नहीं है / कारण यह है कि भवबीजभूत रागादि का क्षय होने पर तुरन्त ही मोक्षलाभ हो जाने से शरीर के अभाव में वक्तृत्व ही संभव नहीं है / यदि रागादिक्षय होने पर भी मोक्षलाभ नहीं हुआ, तब तो भवक्षयात्मक मोक्ष की प्राप्ति का वह कारण ही नहीं माना जा सकेगा। 'जिस के होते हुए भी जो उत्पन्न होता नहीं, वह उसका परिपूर्ण कारण है'-ऐसी व्यवस्था अशक्य है / उदा० जव के बीज में चावल के अंकुर की कारणता स्थापित नहीं हो सकती / यदि कहें-'रागादि का संपूर्ण
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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