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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 479 यच्चोक्तं-'न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्याऽग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत्' इति, तदप्यचारु, यतो यदि तस्य शरीरसम्बन्धरहितस्य कर्तृत्वमभ्युपेयते तन्न युक्तिसंगतम् , तत्सम्बन्धरहितस्य मुक्तात्मन इव जगत्कर्तत्वानुपपत्तेः। अथ ज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षा-समवायाभावाद मुक्तात्मनोऽकर्तृत्वं न पुनः शरोरसम्बन्धाभावादिति विषमो दृष्टान्तः / तदयुक्तम्-ज्ञानादिसमवायस्य कर्तृत्वेनाभ्युपगतस्य तत्रापि निषिद्धत्वात् / तस्माच्छरोरसम्बन्धादेव तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यं कुलालस्येव घटकर्तृत्वम् / तत्सम्बन्धश्चेदभ्युपगम्यते, कथं न तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् ? कुलालादेरपि शरीरसम्बन्धादेवोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् न पुनः तत्सम्बन्धरहितस्यात्मनो दृश्यत्वम् / तच्चेश्वरेऽपि शरीरसम्बन्धित्वं कर्तृत्वादभ्युपगन्तव्यमित्युपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेस्तकर्तुः स्थावरादिष्वभावः सिद्ध इति कथं न तैः कार्यत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी ?! वास्तव परिमाण, उन के अवयव, उनकी संख्या आदि अनेक धर्मों को साक्षात् करने वाला ज्ञान नहीं है। [ Note-चेतनत्वेऽदृष्टस्यापि तदाधारस्य वा सत्त्वस्य-इस पाठ की शूद्धि के लिये विशेष शुद्ध प्रति आवश्यक है। ] सिर्फ घट को उत्पन्न करने के लिये कुछ मात्रा में आवश्यक ज्ञान तो कुम्हारादि चेतन के अदृष्ट के प्रभाव से, अथवा उस अदृष्ट के आश्रय रूप सत्त्व (जीव) को, जो कि अपने अदृष्ट से फल का उपभोक्ता एवं किसी एक नियत शरीर का अधिष्ठाता है, उसको, भी विद्यमान है, अत: दृष्ट चेतनों से अतिरिक्त अन्य कोई संपूर्णज्ञानवान् महेश्वर की कल्पना करना निरर्थक है। यह कोई एकान्त नियम भी नहीं है कि सभी कार्य अपने उपादानादिकारणों को जानने वाले कर्ता से ही उत्पन्न होवे / सुषुप्ति और उन्मत्तावस्था में शरीरादि के अवयवों का चालन आदि कार्य (सुषुप्ति आदि दशा में) अपने उपादानादि को न जानने वाले कर्ता से भी होते हुए दिखाई देते हैं / [शरीर के विना कतृत्व की अनुपपत्ति से हेतु साध्यद्रोही ] यह जो कहा था-विना कृषि से उत्पन्न स्थावरादि में कर्ता के अग्रहणमात्र से उसका निषेध नहीं हो सकता क्योंकि अदृष्ट की तरह कर्ता भी वहाँ उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व से शून्य है [ पृ 390 ]वह भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीरसम्बन्ध के विना ही ईश्वर में कर्तृत्व मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। देह सम्बन्ध के विना जैसे मुक्तात्मा कर्ता नहीं होता वसे ईश्वर भी जगत्कर्ता नहीं घट सकता। यदि यह कहें कि-'आप मुक्तात्मा को दृष्टान्त करते हो वह विषम यानी साधर्म्यविहीन है। कारण, मुक्तात्मा में तो ज्ञान, यत्न और उत्पादनेच्छा का समवाय न होने से हम उसको अकर्ता मानते हैं, शरीर नहीं है इसलिये नहीं'-तो यह भी अयुक्त है क्योंकि आप जो ज्ञानादि के समवाय को ही कर्तत्व मानते हैं उसका पहले ही निषेध कर दिया है (क्योंकि समवाय ही अवास्तव है। ) अत: देहयोग से ही ईश्वर में जगत् कर्तृत्व मानना होगा, जैसे कि देह के योग से कुम्हार में घटकर्तृत्व होता है। अब यदि ईश्वर में देहसम्बन्ध मान लेते है तब तो वह उपलब्धिलक्षणप्रान्तिशून्य है यह कैसे कह सकेंगे? कुम्हार आदि में भी शरीर के योग से ही उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व होता है, अन्यथा भी अर्थात् शरीर सम्बन्ध के विना भी उसकी आत्मा दृश्य कभी नहीं होती। यदि आप ईश्वर को कर्ता मानते हैं तो उसमें शरीरसम्बन्ध भी मानना होगा, तब तो वह यदि स्थावरादि का कर्ता होगा तो उपलब्धिलक्षणप्राप्त होने से उसकी उपलब्धि अवश्य होती, किन्तु नहीं होती है, अतः स्थावरादि में ईश्वरादिकर्तृत्व का अभाव ही सिद्ध हुआ, तो फिर कार्यत्व हेतु स्थावरादि में साध्यद्रोही क्यों नहीं होगा ? !
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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