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________________ 472 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत्तूक्तम्-'पृथिव्यादीनां बौद्धः कार्यत्वमभ्युपगतम् ते कथमेवं वदेयुः' इति तदसारम् , प्रकृतसाध्यसिद्धिनिबन्धनस्य कार्यत्वस्य तेष्वसिद्धत्वप्रतिपादनात् / यच्चाभाषि 'येऽपि चार्वाकास्तेषां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि विशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता' इति, तदप्ययुक्तम् , संस्थानयुक्तत्वस्याऽसिद्ध त्वादिदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् / यच्च ‘संस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः सामान्यं पृथिव्यादीनाम्, न त्वर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते' तदेवमेव / यत्तुक्तम् 'धमादावपि पूर्वापरव्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति' इत्यादि, तदसंगतम् , घटादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य वैलक्षण्येन हेतोरसिद्धत्वप्रतिपादनात्। यदप्युक्तम्-'व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वकार्यत्वादेहेंतोर्मिधर्मतावगम, अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति'-इति, तदप्य चारु, यतो यद्यनुमाननिमित्तहेतु-पक्षधर्मत्वप्रतिबन्धलक्षणां व्युत्पत्तिमाश्रित्य व्युत्पन्ना अभिधीयन्ते तदा पृथिव्यादिगतसंस्थानकार्यत्वादौ घटादिसंस्थानलक्षण्ये प्रकृतसाध्यसाधके व्युत्पत्तिर्न केषाञ्चिदपि भवति, यथोक्तसाध्यव्याप्तस्य पृथिव्यादौ पिशाचादि कर्ता माना जाता है / तो यहाँ निवेदन है कि कुलालादि आत्मा स्वरूप से तो अदृश्य ही होता है केवल देहसम्बन्ध से ही वह दृश्य माना जाता है तो पिशाच और कुलाल में वैलक्षण्य क्यों ? पति कहें कि-कलालादि में जो देहसम्बन्ध है वह दृश्य है इसलिये कूलाल को दृश्य मानते हैं-तो यहाँ यही तो प्रश्न है कि पिशाचादि का देह भी आखिर तो शरीर ही है तो उसे अदृश्य क्यों मानते हैं ? हम लोगों के नेत्र व्यापार से पिशाच का उपलम्भ न होने से यदि वह अदृश्य माना जाता है. तो यह अब सोचिये कि दोनों जगह शरीरत्व तुल्य होने पर भी पिशाचादि का शरीर उपलब्ध न होने से हम लोगों के शरीर से उनके शरीर को विलक्षण माना जाता है, उसी तरह घटादि से विलक्षण वृक्षादि में कार्यत्व भले रहे, उसे कर्तृ रहित क्यों नहीं मानते हैं ? यदि कर्तृ रहित मान लेंगे तब तो कार्यत्व देत फिर से एक बार वृक्षादि में साध्यद्रोही हो गया। इस प्रकार असिद्ध-अनैकान्तिक और विरुद्ध दोषों ईश्वर सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती / अत: प्रारम्भ में जो हमने कहा था [50 383-3] कि पृथ्वी आदि के कार्यत्व की उपलब्धि न होने से उससे ईश्वर की सिद्धि अशक्य हैयह सच्चा कहा है। [ पूर्वपक्षी कथित बातों का क्रमशः निराकरण ] यह जो कहा है-बौद्ध तो पृथिवी आदि में कार्यत्व मानते हैं, वे कैसे यह कह सकेंगे कि पृथ्वी आदि में कार्यत्व उपलब्ध नहीं होता ? [ पृ० ३८३-३]-यह भी असार ही है, प्रस्तुतसाध्यसिद्धिकारक कार्यत्व को बौद्ध भी पृथ्वी आदि में असिद्ध ही मानते हैं। यह जो कहा था-जो चार्वाक पृथ्वी आदि में कार्यत्व को नहीं मानते हैं उनके मत से भी विशिष्टसंस्थानवाले पृथ्वी आदि में भी अकार्यता कैसे कही जाय?-[१० 383-4 ] वह भी अयुक्त है, पृथ्वी आदि में संस्थानवत्ता हेतु असिद्धत्व आदि दोषग्रस्त होने का कह दिया है / यह जो कहा है-पृथ्वी आदि और घटादि में संस्थानशब्द का प्रयोग होता है इतनी ही समानता है, दोनों में अनुगत कोई समान अर्थ नहीं है-यह तो यथार्थ ही है। किन्तु यह जो कहा था-कि अनुगत संस्थान न मानने वाले के मत में तो धूमादि पूर्वापर व्यक्ति में भी अनुगत कोई समान अर्थ नहीं है-इत्यादि [ पृ० 383-8 ] यह जूठा है, क्योंकि धूमादि पूर्वापरव्यक्ति में अनुगत अर्थ उभय सम्मत है जब कि पृथ्वी आदि का संस्थान घटादिसंस्थान से सर्वथा विलक्षण है, इस कारण से पृथ्वी आदि में संस्थानवत्त्व हेतु को असिद्ध कहा है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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