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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च 'द्रव्यादौ तद्विषयत्वं परापेक्षं, न सत्तायामिति वक्तुं युक्तम् , तस्यामपि तदपेक्षत्वसंभवात् / अथ तत्र तस्य तदपेक्षत्वे किं तदपरमिति वक्तव्यम् / नन्वेतद् द्रव्यादावपि समानम् / 'तत्र सत्ता' इति चेत् ? 'अत्रापि द्रव्यादिकम्' इति तुल्यम् , यथैव हि सत्तासम्बन्धात् द्रव्यादिकं सत् न स्वतः, तथा द्रव्यादिस्वरूपसत्त्वसम्बन्धात् सत्ता सती न स्वतः / 'द्रव्यादेः स्वरूपसत्त्वं नास्ति तेनाऽयमदोषः'-तदस्तित्वे को दोष इति वाच्यम् ! ननु तस्या (स्य)स्वतः सत्त्वेऽवान्तरसामान्याभावप्रसंगो दोषः / ननु स्वतोऽसत्त्वे खरविषाणादेरिव सुतरां तदभावदोषः। वन्ध्यापुत्रादितुल्य स्वयं ही असत् है तो उस से दूसरा पदार्थ सत् कैसे हो सकेगा? यदि सत् है तो अन्य एक सत्ता से मानने पर, उस अन्य सत्ता को भी तृतीय सत्ता से सत् मानना होगा, फिर चतुर्थ पंचम....सत्ता की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। यदि स्वतः ही सत्ता को सत् मान लेंगे तो पदार्थों ने क्या अपराध किया है ? उनको भी स्वत: सत् माना जा सकता है, सत्ता की व्यर्थ कल्पना. क्यों करें ? ! दूसरा यह भी प्रश्न आयेगा कि सत्ता को स्वत: सत् मानने में प्रमाण क्या है ? पूर्वपक्षी:-'सत्ता स्वतः सत् है, क्योंकि अन्यथा उसके सम्बन्ध से देहादि के सत्त्व की उपपत्ति शक्य नहीं है'-यह अनुमान प्रमाण है। उत्तरपक्षी:-यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगता है-देहादि का सत्त्व सत्ता के सम्बन्ध से है यह सिद्ध होने पर सत्ता का स्वतः सत्त्व सिद्ध होगा और सत्ता का स्वतः सत्त्व सिद्ध होने पर उसके सम्बन्ध से देहादि का सत्त्व सिद्ध होगा। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष प्रगट है। पूर्वपक्षी:-'सत्ता स्वतः सत् है, क्योंकि 'सत्' इस प्रकार के अभिधान और प्रतीति का विषय है, जैसे द्रव्यत्वादि अवान्तरसामान्य।' [ द्रव्यत्वादि 'द्रव्यत्व' इस प्रकार के अभिधान और प्रतीति के विषय होते हुए स्वत: ही द्रव्यत्वरूप होता है ] इस अनुमान से सत्ता में स्वत: सत्त्व सिद्ध किया जायेगा। उतरपक्षी:-यह बात ठीक नहीं, द्रव्यादिस्थल में व्यभिचार है। द्रव्यादि पदार्थ 'द्रव्य सत् है, गुण सत् है, क्रिया सत् है' इस प्रकार अभिधान और प्रतीति के विषय हैं किन्तु आप उन्हें स्वत: सत् नहीं मानते हैं / यदि उन्हें स्वतः सत् मानेंगे तब तो अतिरिक्त सत्ता की कल्पना ही वन्ध्य हो जायेगी। [ द्रव्यादिसम्बन्ध से सत्ता के सत्त्व की आपत्ति ] "द्रव्यादि में सद्बुद्धिविषयता पराधीन यानी स्वान्य सत्ता को अधीन है, सत्ता में ऐसा नहीं है। सत्ता अपने आप ही सत्-बुद्धिविषय बनती है।"-ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, सत्ता में भी सत्बुद्धिविषयता परापेक्ष होने का सम्भव है। 'सत्ता को परापेक्ष मानेंगे तो वह पर= अन्य कौन है जिसके | 'सत्'बुद्धिविषय बनती है ?' इस प्रश्न के सामने यह प्रश्न है कि द्रव्यादि में भी वह पर अन्य कौन है ? यदि यहाँ द्रव्यादि में सत्ता को पर मानेंगे तो तुल्य रीति से सत्ता में भी द्रव्यादि को पर मान सकते हैं / जैसे आप द्रव्यादि को सत्ता के सम्बन्ध से स्वतः सत् नहीं किन्तु सत् मानेंगे वैसे हम सत्ता को भी स्वत: सत् नहीं किन्तु द्रव्यादि के सम्बन्ध से सत् मानेंगे / यदि कहें कि-'द्रव्यादि में स्वरूप सत्त्व है नहीं अतः उसके सम्बध से सत्ता को सत् मानने की आपत्ति ही नहीं है तो यह दिखाओ कि द्रव्यादि में स्वरूप सत्त्व मानने में दोष क्या है ?
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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