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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः .443 अत्र केचिद् ब्रुवते-नैवं प्रयोगः क्रियते, अपि तु 'सात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात इति / तैरपि एवं प्रयोग कर्वदिः सात्मकत्वाभावो नियमेन प्राणादिमत्त्वाभावेन व्याप्तोऽभ्युपर न्तिव्यः, अन्यथा व्यभिचाराशंका न निवर्तेत / तदभ्युपगमे चेदमवश्यं वक्तव्यम् जीवच्छरीरे प्रारमदिमत्त्वं प्रतीयमानं स्वाभावं निवर्तयति, स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्तते, इतरथा तेनाऽसौ व्याप्तो न स्यात् / यस्मिन्निवर्तमाने यन्न निवर्तते न तेन तद् व्याप्तम् , यथा निवर्तमानेऽपि प्रदीपेऽनिवर्तमानः पटादिन तेन व्याप्तः, न निवर्तते च प्राणादिमत्त्वाभावे निवर्तमानेऽपि सात्मकत्वाभाव इति / निवर्तत इति चेत् तन्निवृत्तावपि यदि सात्मकत्वं न सिध्यति न तहि तदभावो निवर्तते, सात्मकत्वाभावाभावेऽपि तदभावस्य तदवस्थत्वात् / सिध्यतीति चेत् आयातमिदम्-'द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमथं गमयतः' इति / तथा चेदमपि युक्त-'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्' इति / __ अन्ये तु मन्यन्ते-अन्यत्र दृष्टो धर्मः क्वचिद्धर्मिणि विधीयते, निषिध्यते च-इति वचनात् केवलं घटादौ नैरात्म्यमप्राणादिमत्त्वेन व्याप्तं दृष्टम् . तदेव निषिध्यते जीवच्छरीरे प्राणादिमत्त्वाभावेन, न पुनः सात्मकत्वं विधीयते, तस्याऽन्यत्राऽदर्शनात् इति / तेषां, घटादौ नैरात्म्यं प्रतिपन्नं प्रस्तुत अर्थ के विधायक होते हैं।' यदि यह नहीं मानगे तो 'यह देह निरात्मक नहीं है क्योंकि प्राणादिवाला है' इस प्रयोग में 'निर्' और 'न' दो पद से नैरात्म्य के निषेध से सात्मकत्व की सिद्धि कैसे करेंगे ?! [ नजद्वय गर्भित प्रयोग से बचने के लिये व्यर्थ उपाय ] कितने लोग ऐसा प्रयोग कर दिखाते हैं जिसमें दो नत्र पद का प्रयोग न करना पड़े। जैसे: वे कहते हैं कि दो नत्र का प्रयोग नहीं करना किन्तु-'जीवंत देह आत्मसहित है क्योंकि प्राणवंत है' ऐसा प्रयोग करना चाहिये / व्याख्याकार कहते हैं कि ऐसे प्रयोग करने वाले को भी सात्मकत्व का अभाव प्राणादिमत्त्व के अभाव से व्याप्त तो अवश्य मानना पड़ेगा। वरना, व्यभिचार की शंका -यदि सात्मकत्व के न रहने पर भी प्राणादिवत्ता रहे तो क्या बाध ?-यह शंका निवृत्त नहीं होगी। जब उसको व्याप्त मानेंगे तब ऐसा जरूर कहना होगा-जीवंत शरीर में प्रतीत होने वाला प्राणादिमत्त्व अपने अभाव को दूर करता है, दूर होने वाला प्राणादिमत्त्वाभाव अपने व्याप्यभूत सात्मकत्व के अभाव को भी वहाँ से दूर करता है। वरना वह (सा० अ०) उस (प्रा० अ०) का व्याप्त हो नहीं कहा जा सकता। जिस के दूर होने पर भी जो दूर नहीं हो जाता वह उसका व्याप्त नहीं होता. जैसे: दीपक दूर होने पर भी वस्त्रादि दूर नहीं होते अतः वस्त्रादि दीपक के व्याप्त नहीं होते / आपके मत में प्राणादिमत्त्व का अभाव दूर होने पर भी सात्मकत्व का अभाव दूर नहीं होता है / यदि कहें कि वह उसका व्याप्य होने से निवृत्त होगा-अर्थात् सात्मकत्वाभाव दूर होगा, तो भी सात्मकत्व की सिद्धि यदि नहीं मानेंगे तो उसका अभाव निवृत्त नहीं होगा क्योंकि सात्मकत्व के अभाव का अभाव होने पर भी सात्मकत्वाभाव को दूर होना नहीं मानते हैं ( जैसे कि आप 'न असत्' कथन द्वारा सत्त्वाभाव का अभाव होने पर भी सत्त्वाभाव का दूर होना यानी सत्त्व का होना नहीं मानते है ) / यदि सात्मकत्व की सिद्धि मानेंगे तब तो यह फलित हो ही गया कि 'दो नत्र पद से प्रस्तुत अर्थ का विधान होता है / तब तो 'यह देह निरात्मक नहीं है क्योंकि प्राणादिवाला है' इस प्रयोग में भी औचित्य मानना पडेगा।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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