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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे उ०समवाय० 435 किंच, समवायस्य समवायिभिरनभिसम्बन्धे तस्य तत्र 'संबद्धबुद्धिजननं तेषां सम्बन्ध एव च' [ ] इति च न युक्तम् , न हि दण्ड-पुरुषयोः संयोगः सह्य-विन्ध्याभ्यामनभि. सम्बन्ध्यमानस्तत्र संबद्धबुद्धिहेतुः तत्सम्बन्धो वा / तैस्तदभिसम्बन्धे वा स्वतः, द्रव्य-गुण-कर्मणां स्वाधारैः स्वतः सम्बन्धः किं न स्यात् यतः समवायपरिकल्पनाऽऽनर्थक्यमश्नुवीत / 'इह समवायिषु समवायः' इति च बुद्धिरपरनिमित्तका प्रकृतस्य हेतोरनेकान्तिकत्वं कथं न साधयेत् , स्वतस्तत्सम्बन्धाभ्युपगमें ? समवायान्तरेण तस्य तदभिसम्बन्धेऽनवस्थालता गगनतलावलम्बिनी प्रसज्येत / विशेषणविशेष्यभावलक्षणसम्बन्धबलात् तस्य तदभिसम्बन्धे तस्यापि तैः सम्बन्धोऽपरविशेषणविशेष्यभावलक्षणसम्बन्धबलाद यदि सैवानवस्था। समवायबलात् तस्य तत्सम्बन्धे व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / स्वत. स्तैस्तस्याभिसम्बन्धे बुद्धयादीनामपि स्वत एव स्वाधारैः सम्बन्धो भविष्यतीति व्यर्थ सम्बन्धपरिकल्पनम् / तन्न समवायः कस्यचित् प्रमाणस्य गोधरः पुनरपि चैनं यथास्थानं निषेत्स्यामः, इत्यास्तां तावत् / तदेवं बुद्धस्तदात्मनो व्यतिरेके सम्बन्धाऽसिद्धेर्मतुबर्थानुपपत्तिः।। [समवायसाधक अनुमान निर्दोष नहीं है ] जिसने ऐसा कहा है कि-समवाय नित्य और हमेशा के लिये अनुमेय ही है, अत. वह अनुमान का ही विषय है, प्रत्यक्ष का विषय न होने में कोई दोष नहीं है। अनुमान इस प्रकार है:-'यहां तन्तुओं में वस्त्र है' ऐसी बुद्धि तन्तु और वस्त्र दोनों से अतिरिक्त सम्बन्ध से उत्पन्न है, क्योंकि यह बुद्धि 'यहाँ इस तरह से होती है / उदा० 'यहाँ कंसपात्री में जल है' ऐसी बुद्धि ।-ऐसा जिसने कहा है वह भी मिथ्यावादी है। कारण हम आगे दिखायेंगे कि समवाय या अन्य कोई भी पदार्थ यदि नित्यैकस्वरूप होगा तो वह किसी भी कार्य के प्रति कारण नहीं बन सकेगा। "तन्तुओं में वस्त्र है-सींग में गाय हैशाखा में वृक्ष है" ऐसी प्रतीतियाँ लोक में किसी को नहीं होती है, सभी लोगों को 'वस्त्र में तन्तु हैंगाय में सींग है-वृक्ष में शाखा है' ऐसे आकारवाली प्रतीति की उत्पत्ति का ही संवेदन होता है। यदि समवाय को इन प्रतीतिओं का विषय मानेंगे तब तो वस्त्र, गाय और वृक्ष द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से कमशः तन्तु, सींग और शाखा द्रव्य के आरम्भ की आपत्ति होगी। [ समवाय का समवायि के साथ सम्बन्ध है या नहीं ? ] तदुपरांत, A समवाय का समवायी पदार्थों के साथ अभिसम्बन्ध है या B नहीं ये दो प्रश्न दुरुत्तर है / B यदि अभिसम्बन्ध नहीं है तो यह कहना व्यर्थ है कि-'समवाय उनका सम्बन्ध है और उससे 'सम्बद्ध' बुद्धि की उत्पत्ति होती है' / दण्ड और पुरुष का संयोग, सह्याद्रि और विन्ध्याद्रि के थ संलग्न नहीं है तो वह दोनों के बीच सम्बन्ध भी नहीं बन सकता और उससे उन दोनों में 'सम्बद्ध' बुद्धि का भी जन्म होना शक्य नहीं है। A यदि समवायी पदार्थों के साथ समवाय का स्वत: हो अभिसम्बन्ध विद्यमान है, तब तो द्रव्य-गुण और कर्म का भी अपने आधार के साथ समवाय की कल्पना को निरर्थक सिद्ध करने वाला स्वतः ही सम्बन्ध क्यों नहीं हो सकता? तथा, आपने पहले 'इह'....इत्यादि बुद्धि में अतिरिक्त सम्बन्धमूलकत्व को साध्य बना कर 'इह-इति बुद्धित्वात्' यह हेतु कहा था, किन्तु "इह समवायिषु समवायः" इस बुद्धि में आपका अभिमत अतिरिक्त सम्बन्धरूप साध्य तो है नहीं (क्योंकि आप समवायी और समवाय का अलग समवायसम्बन्ध नहीं मानते हैं) तो फिर इस बुद्धि से 'इह इति बुद्धित्वात्'-यह हेतु अनैकान्तिक क्यों नहीं सिद्ध होगा?!
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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