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________________ 422 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 र विस्वरूपे प्रतिभासमाने परभागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयविस्वरूपम् , इति कथं न तत् ततो भिन्नम् ? तथाऽप्यभेदेऽतिप्रसंगः प्रतिपादितः / नापि परभागभाव्यवयवाऽवयविग्राहिणा प्रत्यक्षेणार्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्धित्वं तस्य गृह्यते, तत्र तदवयंवानां प्रतिभासात् तत्सम्बन्ध्येवावयविस्वरूपं प्रतिभासेत नाऽर्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्धि, तेषां तत्राऽप्रतिभासनात् / तदप्रतिभासने च तत्सम्बन्धिरूपस्याऽप्यप्रतिभासनात, व्याप्याऽप्रतिपत्ती तदव्यापकत्वस्याप्यप्रतिपत्तेः। नापि स्मरणेन अर्वाक परभागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयविस्वरूपग्रहः, प्रत्यक्षानुसारेण स्मरणस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः, प्रत्यक्षस्य च तद्ग्राहकत्वनिषेधात / नाप्यात्मा अर्वाक्परभागावयवव्यापित्वमवयविनो ग्रहीतु समर्थः- सत्तामात्रेण तस्य तद्ग्राहकत्वानुपपत्तेः, अन्यथा स्वाप-मद-मूर्छाद्यवस्थास्वपि तत्प्रतिपत्तिप्रसंगात-किन्तु दर्शनसहायः, तच्च दर्शनं न अवय विनोऽवयवव्याप्तिग्राहकं प्रत्यक्षादिकं सम्भवतीति प्रतिपादितम् / [अग्र-पृष्ठभागवत्ती अवयवी का प्रतिभास अशक्य ] पूर्वपक्षीः-पृष्ठभागवर्ती अर्थात् व्यवहित अवयवों का प्रतिभास न होने पर भी अवयवी अव्यवहित होने से भासता है। उतरपक्षी:-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि जब पृष्ठभागवर्ती अवयवों का ही भास नहीं होता तो तद्गत अवयवी का अवभास भी कैसे होगा? जिस रूप का, अन्य किसी के अवभास होने पर भी अनुभव नहीं होता वह उससे भिन्न होता है / जैसे: घट भासता है तब उससे भिन्न पट भासित नहीं होता / अग्रभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी जब भासता है तब पृष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी का स्वरूप नहीं भासता है, तो वह उससे भिन्न क्यों नहीं होगा? उपरोक्त नियम को तोड कर आप यदि अभेद मानेंगे तो घट भी पट से भिन्न नहीं होगा यह अतिप्रसंग उक्तप्रायः ही है। पष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी के ग्राहक प्रत्यक्ष से अग्रभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी का ग्रहण भी नहीं हो सकता / कारण, उस प्रत्यक्ष में पृष्टभाग के अवयव ही भासते हैं अतः उनसे सम्बद्ध अवयवी का स्वरूप ही भास सकता है, किन्तु पृष्ठभागवाला अवयवी नहीं भास सकता क्योंकि उसके अवयव उस प्रत्यक्ष में भासित नहीं होते। जब वे पृष्ठभाग के अवयव ही भासित नहीं होते तो उनसे सम्बद्ध अवयवी का रूप भी भास नहीं सकता क्योंकि अवयवी से व्याप्त अवयवों का भास न होने पर उन अवयवों में व्यापकीभूत अवयवी का तद् व्यापकत्वरूप से भास शक्य नहीं है। [स्मरण से अवयवी का ग्रहण अशक्य ] पूर्वपक्षी:-प्रत्यक्ष को छोड़ दो, स्मरण से अग्र-पृष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध संपूर्ण अवयवी. स्वरूप का ग्रहण होगा। उत्तरपक्षी:- यह भी अशक्य है, क्योंकि स्मरण की प्रवृत्ति तो पूर्वानुभूत प्रत्यक्षानुसारो ही हो सकती है, प्रत्यक्ष से तो वैसे अवयवी स्वरूप गृहीत नहीं है यह तो अभी ही कह आये हैं। पूर्वपक्षीः-स्मरण को छोड दो, आत्मा ही अग्र-पृष्ठभाग के अवयवों में व्यापकीभूत अवयवी का ग्रहण कर सकेगा। उत्तरपक्षी:-यह भी शक्य नहीं, क्योंकि अपनी सत्ता के ही प्रभाव से आत्मा अवयवी का ग्राहक नहीं बन सकता, अन्यथा सुषुप्ति, नशा और मूर्छा इत्यादि दशा में भी सत्ता अखंडित होने
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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