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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 381 [ईश्वरकर्तृत्ववादिपूर्वपक्षः] अत्राहुनैयायिका:-क्लेश कर्म विपाकाशयाऽपरामष्टपुरुषाभ्युपगमे नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा' इति दूषणमभ्यधायि, तत्र तन्नित्यसत्त्वप्रतिपादने नाऽस्माकं काचित् क्षतिः प्रमाणतोनित्यज्ञानादिधर्मकलापान्वितस्य तस्याऽभ्युपगमात् / ननु युक्तमेतद्यदि तथाभूतपुरुषसद्धावप्रतिपादक किचित प्रमाणं स्यात् , तच्च नास्ति / तथाहिन प्रत्यक्ष तथाविधपुरुषसद्भावावेदकमस्मदादीनाम / 'अस्मद्विलक्षणयोगिभिस्तस्यावसाय' इत्यत्रापि न किंचित् प्रमाणमस्ति / यदा न तत्स्वरूपग्रहणे प्रत्यक्षप्रमाणप्रवृत्तिस्तदा तद्गतधर्माणां नित्यज्ञानादीनां सद्भाववात्तव न सम्भवति। ___ नानुमानमपि युक्तमेतत्स्वरूपावेदकम् , प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य तस्यापि निषेधात् / सामान्यतोदृष्टस्यापि नात्र विषये प्रवृत्तिः, लिंगस्य कस्यचित् तत्प्रतिपादकस्याभावात् , कार्यत्वस्य पृथिव्याद्याश्रितस्य केषांचिन्मतेनाऽसिद्धः / न च संस्थानवत्त्वस्य तत्साधकत्वम्,प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्यात्यन्तवलक्षण्यात संस्थानशब्दवाच्यत्वेन चातिप्रसक्तिर्दशिता- 'वस्तुभेदप्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः" [ ] इत्यादिना / तस्मानानुमानं तत्साधनायालम् / नाप्यागमः, नित्यस्यात्र दर्शनेऽनभ्युपगमात् , अभ्युपगमे वा कार्यार्थप्रतिपादकस्य सिद्धे वस्तुन्यव्यापृतेः / नापीश्वरपूर्वकस्य प्रामाण्यम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / अनीश्वरपूर्वकस्यापि संभाव्यमानदोषत्वेन प्रमाणताऽनुपपत्तेः / तस्यान्येश्वरपूर्वकत्वे, तस्यापि सिद्धिः कुत इति वक्तव्यम् / तदसिद्धौ न [ ईश्वर जगत् का कर्ता है-पूर्वपक्ष ] ईश्वर में रागादिक्लेश का अभाव सहज नहीं है, इस प्रकार के ग्रन्थकारकृत प्रतिपादन के ऊपर जगत्कर्तृत्वादी नैयायिक लोग यहाँ 'ईश्वर ही जगत्कर्ता है' इस सिद्धान्त को स्थापित करने जा रहे हैं वे कहते हैं-परमपुरुष को क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से अस्पृष्ट ही मानना चाहिये / जैनों ने जो उसके ऊपर यह दूषण लगाया था [ पृ० 282 ] कि 'रागादि का अभाव यदि निर्हेतुक होगा तो उसका या तो नित्य सत्त्व होगा या असत्त्व ही होगा किन्तु कदाचित् सत्त्व नहीं हो सकेगा'इस में से नित्यसत्त्व के आपादन में हमारी कोई क्षति नहीं है। कारण, अनुमानादि प्रमाण से हम मानते हैं कि ईश्वर स्वयं नित्य है और नित्यज्ञान-नित्यइच्छा आदि धर्मकलाप से आश्लिष्ट ही है / [नैयायिक के सामने कर्तृत्व प्रतिपक्षी युक्तियाँ ] अब यहां नैयायिक के सामने कोई दीर्घ आशंका करता है शंका:-'ईश्वर नित्य है' इत्यादि कथन, यदि ऐसे किसी पुरुषविशेष के सद्भाव का साधक कोई प्रमाण हो तब तो युक्त हो सकता है-किन्तु ऐसा प्रमाण ही नहीं है। देखिये-नित्यज्ञानादिसमन्वित पुरुष के सद्भाव का आवेदक, अपने लोगों में से किसी का भी प्रत्यक्ष नहीं है। अपने लोगों से विलक्षण कोई योगिपुरुष के अतीन्द्रिय ज्ञान से उसका पता चले-इस बात में भी कोई प्रमाण नहीं है / जब प्रत्यक्ष प्रमाण की ईश्वर रूप धर्मी के प्रतिपादन में भी प्रवृत्ति नहीं है तो उसके नित्यत्वादि धर्मों के सद्भाव की वार्ता का भी सम्भव नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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