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________________ 376 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ___ अथेहजन्मबालकुमाराद्यवस्थाभेदेऽपि प्रत्यभिज्ञानादेकत्वं सिद्धम् शरीरस्य तदवस्थाव्यापकस्य, तेन न तदृष्टान्तबलादत्यन्तभिन्ने जन्मान्तरशरीरादौ ज्ञानसंचारो युक्तः / तदसत् , पूर्वोत्तरजन्मशरीरज्ञानसंचारकारिणः कार्मणशरीरस्यात एव कथंचिदेकत्व ( ? स्य) सिद्धेः / तथाहि ज्ञानं तावदिहजन्मादावन्यनिजजन्मज्ञानप्रभवं प्रसाधितम् , तस्य चेहजन्मबाल कुमाराद्यवस्थाभेदेषु तदेवेदं शरीरम्' इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञाप्रत्ययावगतैक रूपान्वयिषु संचारदर्शनात पूर्वोत्तरजन्मावस्थास्वपि तथाभूतानुगामिरूपसमन्वितासु तस्य संचारोऽनुमीयते / न चाऽस्मदादीन्द्रियसंवेद्यरूपाद्याश्रयस्यौदारिकशरीरस्य जन्मान्तरशरीराद्यवस्थानुगमः सम्भवति, तस्य तदैव च दाहादिना ध्वंसोपलब्धः। अतो जन्मद्वयावस्थाव्यापकस्योष्मादिधर्मानुगतस्य कामणशरीरस्य विज्ञानान्तरसंचारकारिणः सद्भावः सिद्धः / पूर्वोत्तरजन्मावस्थाव्यापकस्यावस्थातुस्तदवस्थाभ्यः कथञ्चिदभेदाद मातापितृशरीरविलक्षणनिजशरीरावस्थाचपलताद्यनुविधाने उत्तरावस्थायाः कथं नावस्थातधर्मानुविधानम् ? ! तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवत्तते / शरोरं पूर्वदेहस्य तत्तदन्वयि युक्तिमत् // [ .] .. उत्तरः-यह प्रश्न भी अयुक्त है, बाल-कुमारादि अवस्थाभेद से शरीर का भी भेद सिद्ध ही है 'अब मेरा शरीर पूर्व का नहीं रहा' ऐसी प्रतीति सभी को होती है / बाल-कुमारादि अवस्थावाले शरीर के चपलतादि विशेष जैसे तरुणादिअवस्थावाले देह में अनुगामी दिखाई देते हैं वैसे ही अपने एक जन्म के शरीर से उत्पन्न चपलतादिविशेष अन्यभव में होने वाले जन्म के शरीर में संचरण कर सकेगा, अतः इस जन्म के आद्य शरीर को माता-पिता के शुक्र-शोणित का अन्वयी मानना अनावश्यक है, मानना तो यही चाहिये कि वह एक सन्तानान्तर्गत पूर्वजन्म के चरम शरीर का ही अन्वयी है, जैसे इस जन्म में वृद्धावस्था का देह एक सन्तानान्तर्गत पूर्वकालीन युवाशरीर का अन्वयी होता है / यदि ऐसा न मान कर इस जन्म के शरीर को माता-पिता के शरीर का अन्वयी मानेगे तो इस जन्म के शरीर में माता-पिता के शरीर से जो विलक्षण चपलतादि देहचेष्टा देखी जाती है वह नहीं घट सकेगी। [पूर्वोत्तरजन्म में एक अनुगत कार्मणशरीर की सिद्धि ] शंकाः-इस जन्म में बाल-तरुणादि अवस्था भिन्न भिन्न होने पर भी उन अवस्थाओं में व्यापक एक शरीर की सिद्धि, 'यह वही शरीर है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा से होती है। अत: इस जन्म के शरीरभेद के दृष्टान्त से, अत्यन्त भिन्न ऐसे जन्मान्तर के शरीर में ज्ञानादि का संचार बताना युक्तिसंगत नहीं है। उत्तर:-आपका कहना ठीक है कि प्रत्यभिज्ञा से इस जन्म का एक ही शरीर सिद्ध होता है, अतः अत्यन्त भिन्न जन्मान्तर के शरीर में ज्ञानादि संचार नहीं घट सकता। किन्तु, अब तो इसी अनुपपत्ति से पूर्वजन्म-उत्तरजन्म के शरीरों में ज्ञान का संचरण करने वाले, उन दोनों शरीर से कथंचिद् अभिन्न, ऐसे 'कार्मण' नामक शरीर की सिद्धि होती है / जैसे देखिये, इस जन्म के प्रारम्भ में उत्पन्न ज्ञान वह अपने ही पूर्वजन्म के ज्ञान से उत्पन्न होता है इस तथ्य को हम पहले ही सिद्ध कर आये हैं अत: ज्ञान का शरीरान्तर संचार तो मानना ही पड़ेगा, और उसकी उपपत्ति के लिये माध्यम के रूप में जैन प्रक्रिया के अनुसार माने गये कार्मण शरीर की अनायास सिद्धि होगी। [ अन्य दार्शनिकों ने इस स्थान में सक्ष्मशरीर या लिंग शरीर माना है। वह इस प्रकार-'यह वही शरीर है' इस प्रत्यभिज्ञा प्रतीति से सिद्ध एक ही अनुगत रूप से यानी एक
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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