SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Exxxxxxxxxxxxxxx * प्रकाशक की ओर से सम्राट विक्रमादित्य के प्रति बोधक प्रखरवादी श्रीमत् सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज विरचित 'सन्मतितर्क-प्रकरण' की तर्कपंचानन श्रीमद् अभयदेवसूरीश्वरजी महाराज विरचित 'तत्त्वबोधविधायिनी' नामक विशद संस्कृत व्याख्या का सारभूत हिन्दीविवेचन ( प्रथम खण्ड ) प्रगट करते हए आज हमारे आनन्द की कोई सीमा नहीं है। सन्मतितकप्रकरण और उसकी संस्कृत व्याख्या दार्शनिक चर्चाओं का महासागर है। तत्त्वपिपासुओं के लिये सुधाकुंड है। अनेकान्तवाद के रहस्य को हस्तगत करने के लिये तेजस्वी प्रकाशदीप है / एकान्तवाद की हेयता को समझने समझाने के लिये उत्तम साधन ग्रन्थ है / व्याख्याग्रन्थ की रचना को प्रायः सहस्र वर्ष बीत चुके हैं। इतने काल की अवधि में श्रीमद् वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी महाराज, वादीदेवसूरिजी महाराज, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज एवं पूज्य आत्मारामजी महाराज आदि अनेक महनीय महापुरुषों ने इस व्याख्या ग्रन्थ का पर्याप्त लाभ उठाया है। किन्तु आज ऐसा युग आ गया है कि मुद्रित होने के बाद भी इस ग्रन्थरत्न का पठन-पाठन व्युच्छिन्नप्राय हो गया है / इसके दो कारण हैं-एक ओर बहुत ही अधिकृत लोगों की रुचि जितनी अन्यान्य शास्त्रों के पठन-पाठन में दिखती है उतनी ऐसे महान् ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापन में नहीं दिखाई रही है / दूसरी ओर व्याख्या ग्रन्थ ऐसा तर्क जटिल है कि वर्तमान में या तो कदाचित् कोई उसको पढना चाहे तो भी न स्वयं पढ सकता है, न उसको पढाने वाला भी सुलभ है। ___दर्शनप्रभावक ऐसे महनीय ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा विलुप्त न हो जाय यह सोचना 'श्री जैन शासन के अधिकृत आचार्य महाराज आदि के लिए आवश्यक है। परम सौभाग्य की बात है कि कर्मशास्त्रनिष्णात सिद्धान्तमहोदधि स्व. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज तर्कशास्त्रों के भो पठन-पाठन में स्वयं रुचि व प्रयत्नशील होने से आप के द्वारा तैयार किये गए शिष्यरत्न में से एक न्यायविशारद और अनेकों को ग्रन्थ की वाचना देने में कुशल सिद्धान्त प्रिय आचार्यदेव श्रीमद्विजय भवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के दिल में इस ग्रन्थरत्न के अध्ययन को पुनर्जीवित करने को तमन्ना हुया और व्याख्या ग्रन्थ का अधिकृत मुमुक्षवर्ग सरलता से अध्ययन कर सके इसलिये व्याख्याग्रन्थ के ऊपर सरल विवरण निर्माण करने का शुभ निर्णय कर लिया। किन्त बहविध शासनकार्य में निरंतर निमग्न पूज्यश्री को बड़ी चाह होने पर भी समय का अवकाश नहीं मिलता था तो आखिर उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये अपने प्रशिष्य रत्न सिद्धान्त दिवाकर आचार्यश्री विजय जयघोषसूरिजी महाराज के अन्तेवासो मुनिश्री जयसुन्दरविजयजी महाराज को अन्तर के आर्शीवादपूर्वक सरल विवरण के निर्माणार्थ प्रेरणा की। दूसरी और हमारे श्री संघ के (शेठ मोतीशा लालबाग जैन ट्रस्ट-बम्बई के ट्रस्टीओं को ) ऐसे बडे ग्रन्थरत्न के मुद्रण प्रकाशन के
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy