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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 363 अथ समनन्तरप्रत्ययत्वमुपादानत्वमुच्यते। तथाहि-समः-तुल्यः, अनन्तर:अव्यवहितः प्रत्यया जनकः। न चैतद् भिन्नसन्तानादिति न तत्रानुसन्धानसम्भवः / नन्वत्रापि समत्वं कार्येरण यधुपादानत्व प्रत्ययस्य, तदा वक्तव्यम्-किं a सर्वथा समानत्वम् ? b उतैकदेशेन ? यदि a सर्वथा, तदसत-कार्य रणयोः सर्वथा तुल्यत्वे यथा कारणस्य प्राग्भावित्वं तथा कार्यस्यापि स्यात् / तथा च कार्य-कारणयोरेककालत्वान्न कार्यकारणभावः / नोककालयोः कार्यकारणभावः सव्येतरगोविषाणवत् / तथा, कारणाभिमतस्यापि स्वकारणकालता, तस्यापि स्वकारणकालतेति सकलसन्तानशून्यमिदानी समस्त जगत् स्यात् / b अथ कथंचित् समानता, तथा सति योगिज्ञानस्याप्यस्मदादिज्ञानालम्बनस्य तदाकारत्वेनकसन्तानत्वं स्यात्' इत्यादि दूषणं पूर्वोक्तमेव / अथानन्तरत्वम्पादानत्वम्, ननु क्षणिकैकान्तपक्ष सर्वजगत्क्षणानन्तरं विवक्षितक्षणे जगद् जायत इति सर्वेषामुपादानत्वमित्येकसन्तानत्वं जगतः / देशानन्तयं तत्रानुपयोगि, देशव्यवहितस्यापीहजन्ममरणचित्तस्य भाविजन्मचित्तोपादानत्वाभ्युपगमात् / प्रत्ययत्वं तु नोपादानत्वं, सहकारित्वेऽपि प्रत्ययत्वस्य भावात् / तन्न समनन्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानत्वम् / न च प्रतिक्षणविशरारुषु भावेषु कथञ्चिदेकान्वयमन्तरेण जनकत्वमपि संगच्छते किमुतोपादानादिविभागः-इति क्षणभंगभंगप्रतिपादनावसरेऽभिधास्यामः / विसभागसंततिरूप कार्य उत्पन्न होगा तो फिर परलोक किसका माना जायेगा ? परलोक का अभाव प्रसंग आपतित होगा। [ समनन्तरप्रत्यय को उपादान नहीं कह सकते ] पूर्वपक्षी:-हम समनन्तर प्रत्यय को ही उपादान कहते हैं। जैसे देखिये, सम यानी तुल्य और अनन्तर यानी व्यवधान (=अंतर ) रहित, ऐसा जो प्रत्यय (ज्ञान), वही जनक यानी उपादान है। ऐसे उपादान में भिन्न सन्तान से तुल्यता न होने के कारण, भिन्न सन्तान का वह उपादान न होने से वहाँ भिन्न सन्तान में अनुसन्धान होने की आपत्ति नहीं होगी। उत्तरपक्षी:-अगर यहाँ प्रत्यय में कार्य के साथ तुल्यता को ही उपादानता कहते हैं तब दो प्रश्न होंगे - (a) वहाँ कार्य के साथ तुल्यता सर्वांश में मानते हैं ? या (b) किसी एक अंश से ? a सर्वांश से कारण और कार्य में तुल्यता हो ही नहीं सकती, वरना कारण में पूर्वत्तिता है तो कार्य भी सर्वथा तुल्य होने से पूर्ववर्ती मानना होगा। जब कारण-कार्य दोनों पूर्ववर्ती याने एककालीन होंगे तब उन दो में कार्य कारणभाव ही नहीं घटेगा क्योंकि समानकालीन दो वस्तु में कभी कार्यकारणभाव नहीं हो सकता, जैसे दाये-बायें गो सींग समानकालोत्पन्न और समकालवर्ती हैं तो उन दो में वह नहीं होता है / तदुपरांत, कारण भी अपने कारण का कार्य होने से, कारण और उसका कारण ये दोनों भी सर्वांश में ने से समकालीन बन जायेंगे, उस कारण का कारण भी उसका समानकालीन बन जायेगा-इस प्रकार एक संतानवर्ती और कारण-कार्यरूप से अभिमत सकल क्षणों में कालिक पूर्वापरभाव का उच्छेद हो जाने से सन्तानभाव भी न रहेगा तो समुचा जगत् सर्वसन्तान शून्य हो जायेगा। [ आंशिक समानता पक्ष में आपत्ति ] अगर सर्वांश से नहीं किन्तु कुछ अंश में ही समानता मानेंगे तो इस पक्ष में पहले ही दूषण दिखा दिया है कि, हमारे-आपके ज्ञान को विषय करने वाले योगिपुरुष के ज्ञान में हमारा-आपका
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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