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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: 329 अथ साधर्म्यदृष्टान्ताभावेऽपि दृष्टवैधHदृष्टान्तस्य घटादेः सद्भावात् केवलव्यतिरेकिबलात् तत्र तस्सिद्धिस्तहि यत्र स्वप्रकाशकत्वं नास्ति तत्रार्थप्रकाशकत्वमपि नास्ति, यथा घटादाविति व्यतिरेकदृष्टान्तसद्भावादर्थप्रकाशकत्वलक्षणाद्धेतोः स्वप्रकाशकत्व विज्ञानस्य किमिति न सिद्धिमासादयति ? यत्तूक्तम्-'कस्यचिदर्थस्य काचित् सामग्री, तेन प्रकाशः प्रकाशान्तरनिरपेक्ष एव स्वग्राहिणि युक्तमेव, यथा हि स्वसामग्रीत उपजायमानाः प्रदीपालोकादयो न समानजातीयमालोकान्तरं स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाना अपेक्षन्ते तथा स्वसामग्रीत उपजायमानं विज्ञानं ! स्वार्थप्रकाशस्वभावं स्वप्रतिपत्तौ न ज्ञानान्तरमपेक्षते, प्रतिनियतत्वात् स्वकारणायत्तजन्मनां भावशक्तीनाम् / यत्त प्रदीपालोकादिकं सजातीयालोकान्तरनिरपेक्षमपि स्वप्रतिपत्तौ ज्ञानमपेक्षते तत् तस्याऽज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य च तद्विपर्ययस्वभावत्वाद् युक्तियुक्तमिति 'नैकत्र दृष्ट: स्वभावोऽन्यत्राऽऽसञ्जयितु युक्तः' इति पूर्वपक्षवचो निःसारतया व्यवस्थितम् / पडेगा-तो आत्मवादी कहता है कि ज्ञान के अपने प्रकाश में, 'सजातीय अपरज्ञान की अपेक्षा का अभाव' इस साध्य की सिद्धि के लिये दीपकादि स्वरूप दृष्टान्त दूर नहीं है / जैसे देखिये-प्रदीप का आलोक जैसे अपने बोध में अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं करता तथैव ज्ञान भी अपने प्रकाश में सजातीय अनूव्यवसायादि ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता। प्रदीप का दृष्टान्त केवल इतने ही अंश में समझना चाहिये, किन्तु दृष्टान्त का ऐसा तात्पर्य नहीं लगाना है कि 'प्रदीप अन्यालोक से निरपेक्ष हो कर स्वयं अपना प्रकाश यानी ज्ञान कर लेता है' क्यों कि ऐसा तात्पर्य है ही नहीं, प्रदीप में ज्ञानत्व का आपादन इष्ट ही नहीं है, अत एव यह जो आपने कहा था-प्रदीप इन्द्रिय से अग्राह्य होने से स्वप्रकाश नहीं कहा जाता, यदि प्रदीप को इन्द्रिय से अग्राह्य मान कर स्वप्रकाश कहेंगे तो नेत्र वाले पुरुष की तरह अन्धे को भी उस की प्रतीति होने लगेगी-इत्यादि, यह सब अस्थान प्रलाप है कि हम प्रदीप को इन्द्रियाग्राह्य कहते ही नहीं। तथा, दृष्टान्त में साध्यधर्मी के सभी धर्मों का आपादन करना उचित नहीं है / [ ज्ञान की स्वप्रकाशता के लिये प्रदीप को दृष्टान्त करने में ज्ञानधर्म ज्ञानत्व का दृष्टान्तभूत दीपक में आपादन नहीं हो सकता ] वरना, शब्द की अनित्यता सिद्ध करने में, घटरूप दृष्टान्त में शब्दगत शब्दत्वादि धर्मों के आपादन का प्रसंग अवसरप्राप्त होने से घट भी श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बन जायेगा। यह भी नहीं कह सकते कि-"जहाँ तक साधर्म्य दृष्टान्त ( जैसे कि धूम से पर्वत में अग्नि को सिद्ध करने में पाकशाला ) न उपलब्ध हो वहाँ तक किसी भी अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती चाहे वह अर्थ प्रमाण से प्रतीत भी क्यों न हो?"-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि-जिन्दे शरीर में भी प्राणादिमत्ता के हेत से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकेगी क्योंकि आत्मसहितत्व रूप साध्य अन्यत्र कहीं भी प्रसिद्ध नहीं हाने से किसी भी प्रसिद्ध दृष्टान्त का यहाँ सद्भाव नहीं है / [वैधर्म्यदृष्टान्त से ज्ञान में स्वप्रकाशत्वसिद्धि ] यदि ऐसा कहें-सात्मकत्व की सिद्धि के लिये कोई अन्वयी यानी साधर्म्यवाला दृष्टान्त न होने पर भी व्यतिरेकी यानी वैधर्म्यवाला दृष्टान्त घटादि इस प्रकार हो सकता है कि जहाँ सात्मकत्व नहीं है वहाँ प्राणादिमत्त्व भी नहीं होता जैसे कि घटादि. इस प्रकार केवल व्यतिरेकव्याप्ति के बल से भी जिन्दे शरीर में सात्मकत्व सिद्ध हो सकता है तो प्रस्तुत में भी ज्ञान में स्वप्रकाशत्व सिद्धि के लिये हम ऐसा कहेंगे कि जहाँ स्वप्रकाशत्व नहीं होता वहाँ अर्थप्रकाशकत्व भी नहीं होता जैसे घटादि / तो इस
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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