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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 विनाभूतस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वादादापन्नस्य स्वशब्देन पुनरभिधानं निग्रहस्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं वादकथायां क्रियमाणं तद्वक्तुनिग्रहमापादयति / उपनयवचनं तु हेतोः पक्षधर्मत्वप्रतिपादनादेव लब्धमिति तस्यापि ततः पृथक् प्रतिपादने पुनरुक्ततालक्षण एव दोष इति इति न तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवाक्यम् , ततः सर्वदोषरहितत्वात् साधनवाक्यस्य भवत्यत: प्रकृतसाध्यसिद्धिः। __ स्वसाध्याऽविनाभतश्च हेतुः साध्यमिण्युपदर्शयितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवताचार्येण गाथासूत्रावयवेन तथाभूतहेतुप्रदर्शनं कृतमिति / तथाहि-'समयविशासनम्'-इत्यनेन गाथासूत्रावयववचनेन स्वसाध्यव्याप्तस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारः सूचितः। हेतोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः प्रमाणत: सर्वोपसंहारेण प्रदर्शनोया। तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित् साध्यमिण्येव प्रवृत्तं तां तस्य साधयति, कदाचित् दृष्टान्तामणि। यत्र हि सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वात्' इत्यादी प्रयोगे न दृष्टान्तर्मिसद्भावः तत्र व्याप्तिप्रसाधक प्रमाणं प्रवर्त्तमानं साध्यमिण्येव सर्वोपसंहारेण हेतोः स्वसाध्यव्याप्तिं प्रसाधयति / यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ दृष्टान्तमिणोऽपि सत्त्वं तत्र दृष्टान्तर्धामण्यपि प्रवृत्तं तत् प्रमाणं सर्वोपसंहारेणैव तस्याः प्रसाधकमभ्युपगंतव्यमन्यथा दृष्टान्तामणि हेतोः स्वसाध्यव्याप्तावपि साध्यमिणि तस्य तदव्याप्ती पूर्वोक्त चर्चा से यह भी फलित होता है कि जब प्रतिज्ञावचन निरर्थक सिद्ध होता है तो साध्य का पुनरावर्तन करने वाला निगमनवचन तो सर्वथा निरुपयोगी हो गया, अत: प्रतिज्ञा आदि वाक्य प्रयोग न किया जाय तो हमारे कथित साधन को कोई दोष लागू नहीं होता / कारण यह है कि प्रतिज्ञादि वाक्य का प्रतिपाद्य जो अर्थ है वह तो अपने स्वसाध्य-अविनाभावि हेतु का पक्ष में उपसंहार दिखाने वाले वाक्य से ही सिद्ध हो जाता है तब जो अर्थत: सिद्ध हो उसकी स्ववाचक शब्द से पुनरुक्ति करना निग्रहस्थान यानी वाद में पराजय हेतू होने से वादसंज्ञक कथा में यदि प्रतिज्ञादिवाक्य का प्रयोग किया जायेगा तो प्रयोक्ता निग्रहप्राप्त हो जायेगा। उपनयवाक्य भी निरुपयोगी है। हे धर्मता दिखा देने से ही उपनयवाक्य का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, अतः पृथक रूप से उपनयवाक्य प्रयोग करने पर पुनरुक्ति दोष होने से उसके अकथन में साधनवाक्य की कोई न्यूनता नहीं है / इस प्रकार सर्वदोषशुन्य इस वचनविशेषत्वरूप साधनवाक्य से निराबाध प्रकृत साध्य साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि हो जाती है / [ 'समयविसासण' शब्द से व्याप्तिविशिष्ट हेतु का उपसंहार ] वादकथा में साध्यमि पक्ष में स्वसाध्य का अविनाभावि हेतु दिखाना चाहिये-इस अभिप्राय से सूत्रकार सूरिजी ने गाथासूत्र के अवयव से तथाप्रकार के हेतु का उपदर्शन कराया है / जैसे देखिये'समयविशासन' इस गाथासूत्र के अवयव वचन से साध्यमि वचनविशेष में साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक त्वरूप साध्य का अविनाभावि वचन विशेषत्वरूप हेत का उपसंहार सूचित किया है। हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति यानी अविनाभाविता सकल हेतु और साध्य के उपसंहार दिखाने वाले प्रमाण से प्रदर्शित करनी चाहिये / यह व्याप्ति प्रदर्शक प्रमाण की प्रवृत्ति दो स्थान में होती है-१-कभी कभी साध्यधर्मी पक्ष में ही व्याप्तिसाधक प्रमाण प्रवृत्त होता है, २-तो कभी दृष्टान्तभूत धर्मी में वह प्रवृत्त होता है / यह अब दिखाया जाता है
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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