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________________ प्रथमखण्ड-का० १-अपौरुषेय विमर्श। 133 क्वचित् प्रदेशे घटाभावप्रतिपत्तिस्तु न घटज्ञानाभावात् कित्वेकज्ञानसंसगिपदार्थान्तरोपलम्भात् / न च पुरुषाभावाभावप्रतिपत्तावयं न्यायः, तदेकज्ञानसंसर्गिणः कस्यचिदप्यभावात् / न पुरुष एव तदेकज्ञानसंसर्गी, पुरुषाभावाभावयोविरोधेनैकज्ञानसंसगित्वाऽसम्भवात् , सम्भवेऽपि न पुरुषोपलम्भभावात् तदभावाभावप्रतिपत्तिः, तदुपलम्भस्यैव तत्प्रतिपत्तिरूपत्वात् , अत एव विरुद्धविधिरप्यत्र न प्रवर्तत इति / 'किं च कस्याभावज्ञानाभावात् प्रमेयाभावाभावः-वादिनः ? प्रतिवादिनः ? सर्वस्य वा ? यादि वादिनोऽभावज्ञानाभावान्नागमान्तरे प्रमेयाभावः, वेदेऽपि मा भूक, तत्रापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावस्याऽविशेषात / अथागमान्तरे वादि-प्रतिवादिनोरुभयोरप्यभावज्ञानाभावान्न प्रमेयाभावः, वेदे तु प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावेऽपि वादिनोऽभावज्ञानसद्भावात् / न, वादिनो यदभावज्ञानं तत् सांकेतिकम् , नाभावबलोत्पन्न; आगमान्तरे प्रतिवादिनोऽप्रामाण्याभावज्ञानवत् / न च सांकेतिकादभावज्ञानादभावसिद्धिः, अन्यथाऽऽगमान्तरेऽपि ततोऽप्रामाण्याभावसिद्धिप्रसंगः / तन्नागमान्तरे वादिनो कार्य का कारण है, कारण होने पर भी कभी अन्य सहकारी के अभाव में कार्याभाव हो सकता है इसलिये कार्याभावरूप प्रमेयाभावज्ञानाभाव यह प्रमेयाभावरूप कारण के अभाव का व्यभिचारी होने से कारण के अभाव का यानी प्रमेयाभाव का अर्थात् प्रमेय का बोधक नहीं हो सकता। 'प्रमेयाभावज्ञानरूप काय का अभाव होने पर प्रमेयाभावरूपकारण का अभाव अवश्य होना चाहिये इस प्रकार का प्रतिबन्ध [=व्याप्ति रूप सामर्थ्य अगर कार्याभाव में होता तब तो ठीक था लेकिन उस प्रकार के सामर्थ्य से शून्य 'प्रमेयाभावज्ञान का अभाव' प्रतीत होने पर भी आपकी इष्टसिद्धि यानी प्रमेयाभावरूप कारण के अभाव की सिद्धि [ अर्थात् अन्यआगम में पुरुष की सिद्धि ] नहीं हो सकती। [ घटाभावबोध और पुरुषाभावाभावबोध में न्याय समान नहीं है ] किसी भूतलादि प्रदेश में जो घटाभाव का बोध होता है वह केवल घटज्ञान के न होने मात्र से नहीं होता किन्तु घट के होने पर उसके साथ समानज्ञान का संसर्गी यानी तुल्यवित्तिवेद्य भूतलरूप पदार्थान्तर के उपलम्भ से होता है पुरुषाभावाभाव का बोध इस न्याय से नहीं किया जा सकता, क्योंकि पुरुषाभावाभाव का कोई एकज्ञानसंसर्गि अन्य किसी पदार्थ का ही अभाव है। पुरुष ही पुरुषाभाव का एकज्ञानसंसर्गी नहीं माना जा सकता जिससे केवल पुरुष उपलब्ध होने पर पुरुषाभाव का अभाव ज्ञात हो सके / कारण, पुरुष का भाव और अभाव परस्पर विरुद्ध होने से पुरुष और पुरुषाभाव कभी एकज्ञानसंसर्गी नहीं हो सकते / कदाचित् इसका संभव मानले तो भी पुरुष के उपलम्भ से पुरुषाभावाभाव का बोध नहीं मान सकते क्योंकि पुरुष का उपलम्भ पुरुषाभावाभाव का ही उपलम्भ है, अर्थात् दोनों में ऐक्य होने से जन्य-जनक भाव नहीं है / यही कारण है कि यहाँ विरुद्ध विधि का प्रवर्तन नहीं है / परस्पर में विरोध होने पर एक के अभाव में उसके विरोधी का विधान शक्य होता है किन्तु यहाँ ऐसा कोई विरोध नहीं है। [वादि-प्रतिवादी के या किसी के भी अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभावसिद्धि अशक्य ] यह भी विचारणीय है कि किसके अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव मानेंगे? [1] वादी के ? [2] प्रतिवादी के ? [3] या सभी के ? [1] यदि वादी को यानी अपौरुषेयवेदवादी को अन्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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