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________________ उत्तर काल में 'घर प्रकारक ज्ञानसे मैं मुक्त हूं' इस प्रकार की प्रतीति होनी चाहिए / जो अनुभव से विरुद्ध है। इस के लिए विषयता, झान और विषयता, आश्रयता संबध से विपय में और निरूपकता संबंध से ज्ञान में रहती है। विषयित्व भी ज्ञान और विषय से भिन्न पदार्थ है। और यह वियित्व दो प्रकार से है। पहला किसी भी विषयता से निरूपित नहीं होता और दूसरा यह है कि अन्य विषयता से निरूपित होता है। निर्विकल्पक ज्ञान में जो विषयित्व होता है उससे निरूपित विषयता अन्य विषय से निरूपित नहीं होती। विशिष्ट ज्ञान की जो विषयता होती है, वह अन्य विशेषताओं से निरूपित हो सकती है / यहाँ प्रकारता, विशेष्यता और संसर्गता रूप विषयता होती है और वह अरस-परस निरूप्य निरूपक भाव में होती है। . विशेष्यता और प्रकारता भी दो प्रकार की होती है। एक किसी भी धर्म से अवच्छिन्न होती है। और दूसरी निरवच्छिन्न होती है। उपर्युक्त सारी बातों का विस्तार से इस कृति में चर्चा की है। 6. वायुष्मादेप्रत्यक्षाप्रत्यक्षत्व-मतलब कि वायु और उष्मा प्रत्यक्ष है या 6 अप्रत्यक्ष ? उसके बारे में विचारणा. कुछ नयायिक पृथ्वी पानी और अग्नि ये तीन पदार्थ, रूप और स्पर्श से युक्त है ऐसा मान ते है। और इसलिए ये तीनों ही चक्षु और त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय ' इन दो इन्द्रियों से यह प्रत्यक्ष होता है ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव कर के कहता हैं / पदार्थ को प्रत्यक्ष होने में रुप तभी ही कारण बनता है. जब प्रत्यक्ष बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न होता हो / वे चक्षु से पदार्थ के प्रत्यक्ष में रुप और त्वचा से प्रत्यक्ष होने में स्पर्श को कारण मानता नहीं। स्पर्श और रुप दोनों को कारण स्वरुप माना जाय तो वहाँ दो प्रकार के कार्य कारण भाव मानने पडेंगे / दो कार्य कारण भाव मानने में दार्शनिकों को गौरव होता है. अनावश्यक कारण को वे बोझ मानते हैं / इसलिए गौरव न हो इस तरफ उनका खास लक्ष्य रहता है। इसलिए वे ऐसा कहते हैं कि रुप कौर त्वचा इन दोनों पदार्थो के प्रत्यक्ष में एक रुप को ही अगर कारण माना जाय तो लाघव होता है। इन लाघववादीओं के मन के अनुसार रुप हो नो ही त्वचा से पदार्थ प्रत्यक्ष हो सकेगा अन्यथा नहीं। इनी वधित बात को समझाकर वायुपदार्थ की बात समझाते हुए कहते हैं कि वायु पदार्थ है / ऐसी प्रतीति त्वचा से भी नहीं होगी. क्यों कि ऊपरी दलील के अनुसार पदार्थ के प्रत्यक्ष में कारण एक रुप को ही माना है / और रुप तो वायु पदार्थ में है ही नहीं इसलिए त्वचा से वायु प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। ऐसा प्राचीन नेयायिकों का मत है पू उपाध्यायजी महाराजने इस मत का विविध हेतुओं के द्वारा इस प्रकरण में खंडन किया है / वे कहते हैं कि शरीर के साथ वायु-हवा का जब संयोग हो तो ही यह शीत वायु बह रहा है-यह उष्ण वायु चल रहा है. ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होता है. रुपविहीन वायु प्रत्यक्ष है, इसलिए त्वचा जन्य प्रत्यक्ष में स्पर्श के भिन्न भिन्न कारण मानने चाहिए / प्रत्यक्ष की मान्यता से विरुद्ध होने से लाघव की बात आगे रखकर पदार्थ प्रत्यक्ष में केवल रुप को कारण कहना. वायु के प्रत्यक्ष में त्वचा का भ्रान्त कारण कहना यह योग्य नहीं / इस वस्तु को बहुत हेतु देकर विस्तारसे समझाई है।
SR No.004308
Book TitleNavgranthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages320
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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