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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु 45 वास्तविक अर्थ में भिक्षु ही होता है / इसीलिए “सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव"-ये दो विकल्प केवल भिक्षु के लिए ही हैं। गृहस्थ वही होता है, जो महाव्रत या उसके उत्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता / श्रमण-परम्परा में श्रमण होने से पूर्व गृह-वास करना आवश्यक नहीं माना गया। कोई व्यक्ति बाल्य अवस्था में भी 'श्रमण' हो सकता है, यौवन या बुढ़ापे में भी हो सकता है। __भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा--"पुत्रो ! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें, फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे।"२ ___तब पुत्र बोले- "पिता ! कल की इच्छा वही कर सकता है, जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा।" बौद्ध-संघ में भिक्षु-जीवन को दो अवस्थाएं मान्य हैं- श्रामणेर अवस्था तथा उपसम्पन्न अवस्था। श्रामणेर अवस्था में केवल दस नियमों का पालन करना पड़ता है। उपसम्पन्न भिक्षु को प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना पड़ता है / बीस वर्ष की आयु के बाद ही कोई उपसम्पन्न हो सकता है। इस प्रकरण की मीमांसा का सार-भाग यह है१. श्रमण-परम्परा में गृहस्थ-जीवन की अपेक्षा श्रमण-जीवन श्रेष्ठ माना गया। 2. श्रमण होने के नाते तीन अवस्थाएं योग्य मानी गई। 3. श्रमण-जीवन से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी गई। यज्ञ-प्रतिरोध और वेद का अप्रामाण्य हमारे सांस्कृतिक अध्ययन की यह सहज उपलब्धि है कि वैदिक-संस्कृति का केन्द्र यज्ञ और श्रमण-संस्कृति का केन्द्र श्रामण्य रहा है। वैदिक धारणा है-यज्ञ की उत्पत्ति का मूल है—विश्व का आधार / पापों का नाश, शत्रुओं का संहार, विपत्तियों का निवारण, राक्षसों का विध्वंस, व्याधियों का परिहार सब यज्ञ से ही सम्पन्न होता है / क्या दीर्घायु, क्या समृद्धि, क्या अमरत्व सबका साधन यज्ञ ही माना गया है। वास्तव में वैदिकों के जीवन का सम्पूर्ण दर्शन यज्ञ में सुरक्षित है। यज्ञ के इस तत्त्व का स्वरूप १-स्थानांग, 3 / 2 / 155 / २-उत्तराध्ययन, 14 / 26 / ३-बही, 14 // 27 // ४-सुत्तनिपात, पृ० 244 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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