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________________ 512 उत्तराध्ययन एक : समीक्षात्मक अध्ययन एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया बस / वसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामह // 23 // 36 // एक को जीत लेने पर पाँच जीते गए। पाँच को जीत लेने पर दस जीते गए। दसों को जीत कर मैं सब शत्रुओं को जीत लेता हूँ। सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरन्ति महे सिणो // 23 // 73 // शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है। मोक्ष की एषणा करने वाले इसे तैर जाते हैं / जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं / धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं // 23 // 6 // ___ जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। जा उ अस्सा विणी नावा न सा पारस्स गामिणी / जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी // 23 // 7 // - जो छेद वाली नौका होती है, वह उस पार नहीं जा पाती। किन्तु जो नौका छेद वाली नहीं होती, वह उस पार चली जाती है। जो न सज्जइ आगन्तुं पव्वयन्तो न सोयई। . रमए अज्जवयणं मि तं वयं बूम माहण // 25 // 20 // जो आने पर आसक्त नहीं होता, जाने के समय शोक नहीं करता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। न वि मुण्डिएण समणो ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो // 25 // 29 // __ केवल सिर मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ ताक्सो // 25 // 30 // समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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