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________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण एते भुत्वा वमित्वा च पक्कमन्ति विहंगमा, ये च भुत्वा न वर्मिसु ते मे हत्थत्थं आगता // 17 // अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि, वन्तादो पुरिसो राज न सो होति पसंसियो // 18 // 'इनमें जो खाकर वमन कर दे रहे हैं, वे पक्षी उड़े जा रहे हैं, और जो खाकर वमन नहीं कर सकते, वे मेरे हाथ में आ फंसे / ' 'ब्राह्मण ने जिन काम-भोगों का तिरस्कार किया, उन्हें तू उपभोग करने जा रहा है / हे राजन् ! वमन किए हुए को खाने वाले की प्रशंसा नहीं होती।' __ यह सुन राजा को पश्चात्ताप हुआ। उसे तीनों भव जलते हुए प्रतीत हुए। उसने सोचा कि मुझे आज ही राज्य छोड़ कर प्रवजित हो जाना चाहिए। उसके मन में वैराग्य पैदा हो गया। तब उसने देवी की प्रशंसा करते हुए यह गाथा कही ___पंके व पोसं पलिपे व्यसन्नं बली यथा दुब्बलं उद्धरेय्य, एवं पि मं त्वं उदतारि भोति पञ्चालि गाथाहि सुभासिताहि // 19 // _ 'जैसे कोई बलवान आदमी कीचड़ अथवा दलदल में फंसे किसी दुर्बल मनुष्य का उद्धार कर दे, उसी प्रकार हे पञ्चाली ! तूने सुभाषित गाथाओं द्वारा मेरा उद्धार कर दिया है।' ___ यह कह और उसी क्षण प्रबजित होने की इच्छा से अपने अमात्यों को बुलाकर पूछा-'तुम क्या करोगे ?' 'और देव ! आप ?' 'मैं हस्तिपाल के समीप प्रवजित होऊँगा।' 'देव ! हम भी प्रव्रजित होंगे।' राजा ने बारह योजन के वाराणसी नगर का राज्य छोड़ दिया और घोषणा कर दी कि जिन्हें जरूरत हो वे श्वेत-छत्र धारण करें। वह तोन-योजन अनुयाइयों के साथ कुमार के ही पास पहुँचा। कुमार ने उसकी परिषद को भी आकाश में बैठ धर्मोपदेश दिया। शास्ता ने राजा के प्रवजित होने की बात को प्रकाशित करते हुए यह गाथा कही इदं वत्वा महाराज एसुकारी दिसम्पति / रटुं हित्वान पब्बजि नागो छेत्वा व बंधनं // 20 // 'यह कहकर दिशा-पति महाराज एसुकारी उसी प्रकार राष्ट्र छोड़कर प्रवजित हो गया, जैसे हाथी बन्धन को काट डालता है।' फिर एक दिन नगर में अवशिष्ट जनों ने इकट्ठे हो, राजद्वार पहुँच, देवी को सूचना 42 .
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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