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________________ 304 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन __ "उसका मैंने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी का यह ऐसा फल है कि में धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूछित हो रहा हूँ। ___ "जैसे पंक-जल (दलदल) में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे ही काम-गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण-धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते।" ___ मुनि ने कहा-"जीवन बीत रहा है। रात्रियाँ दौड़ी जा रही हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को प्राप्त कर उसे छोड़ देते है, जैसे क्षोण फल वाले वृक्ष को पक्षी। ___ "राजन् ! यदि तू भोगों का त्याग करने में असमर्थ है, तो आर्य-कर्म कर / धर्म में स्थित हो कर सब जीवों पर अनुकम्पा करने वाला बन, जिससे तू जन्मान्तर में वैक्रियशरीर वाला देव होगा। "तुझ में भोगों को त्यागने की बुद्धि नहीं है। तू आरम्भ और परिग्रह में आसक्त हैं / मैंने व्यर्थ ही इतना प्रलाप किया। तुझे आमंत्रित (सम्बोधित) किया। राजन् ! अब मैं जा रहा हूँ।" पंचाल-जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन का पालन नहीं किया। वह अनुत्तर काम-भोगों को भोग कर अनुत्तर नरक में गया। कामना से विरक्त और प्रधान चारित्र-तप वाला महर्षि चित्र अनुत्तर संयम का पालन कर अनुत्तर सिद्ध-गति को प्राप्त हुआ। -उत्तराध्ययन, 13 // 4-35 / चित्तसम्भूत जातक क वर्तमान कथा उनका परस्पर बहुत विश्वास था। सभी कुछ आपस में बाँटते थे। भिक्षाटन के लिए इकट्ठ जाते और इकट्ठे ही वापस लौटते / पृथक्-पृथक् नहीं रह सकते थे। धर्मसभा में बैठे भिक्षु उनके विश्वास की ही चर्चा कर रहे थे / शास्ता ने आ कर पूछा- "भिक्षुओ, बैठे क्या बातचीत कर रहे हो ?" "अमुक बातचीत" कहने पर "भिक्षुओ, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है यदि यह एक जन्म में परस्पर विश्वासी हैं, पुराने पण्डितों ने तीन-चार जन्मान्तरों तक भी मित्र-भाव नहीं त्यागा" कह पूर्व-जन्म की कथा कही।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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