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________________ 272 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह कहता घूम रहा था कि यहाँ मधु दो और यहाँ घृत दो। उस समय मातङ्ग-पण्डित हिमालय के आश्रम में बैठा था। उसने सोचा कि दिट्ठमङ्गलिका के पुत्र का क्या हाल है ? यह देख कि वह अनुचित रास्ते पर जा रहा है उसने सोचा कि में आज ही जान कर माणवक का दमन कर, उससे जिन्हें दान देने से महान् फल होता है उन्हें दान दिला कर आऊंगा। वह आकाश-मार्ग से अनोतप्त-सरोवर पहुंचा, मुख प्रक्षालन आदि किया। फिर मनोशिलातल पर खड़े हो लाल कपड़ा धारण कर, काय-बन्धन बाँधा और पासुकूल. संघाटी पहन, मिट्टी का बरतन ले, आकाश-मार्ग से जा चौथे द्वार-कोठे की दानशाला में ही उतर एक ओर खड़ा हुआ। मण्डव्य ने इधर उधर देखते हुए जब उसे देखा तो सोचा-ऐसा बद-सूरत, यक्ष जैसा यह प्रव्रजित है ! उससे पूछा-यहाँ तू कहाँ से आया है ? उसने उससे बातचीत करते हुए पहली गाथा कही कुतो नु आगच्छसि सम्भवासि ओतल्लको पंसुपिसाचको व सङ्कार चोलं पटिमुच्च कंठे को रे तुवं होहिसि अदक्खिगेय्यो // 1 // [हे चिथड़ेधारी ! हे गंदे वस्त्र वाले ! हे पांसु-पिशाच-सदृश ! तू यह गले में कूड़े के ढेर पर से उठाये वस्त्र पहन कर कहाँ से आया है और कोन है ?] यह सुन बोधिसत्व ने कोमल चित्त से ही उससे बातचीत करते हुए दूसरी गाथा कही अन्नं तव इदं पकतं यसस्सि, तं खञ्जरे मुञ्जरे पिय्यरे च, जानासि त्वं परदत्तूपजीवि, उसिट्टथ पिण्डं लभतं सपाको // 2 // हे यशस्वी ! तेरे घर यह अन्न पका है। उसे (लोग) खा-पी रहे हैं। तू जानता है कि हम दूसरों द्वारा दिया ही खाकर जीने वाले हैं। उठ ! चाण्डाल को भी कुछ भोजन मिले। तब मण्डव्य ने गाथा कही अन्नं मम इदं पकतं ब्राह्मणानं, अत्तत्थाय सद्दहतो मम इदं, अपेहि एस्थ, किं दुध द्वितोसि, न मा दिसा तुम्हं ददन्ति जम्म // 3 // .
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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