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________________ 240 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि जीत्र दो प्रकार के होते हैं-(१) संसारी और (2) सिद्ध / ' सम्यग दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के द्वारा पौद्गलिक बन्धनों से मुक्त जीव 'सिद्ध' कहलाते हैं। दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि में उनका कोई योगदान नहीं होता। वे केवल आत्मप्य होते हैं। सृष्टि के विविध रूपों में संपारी जोवों का योगदान होता है। वे शरीरस्य होते हैं, इसलिए पौद्गलिक संयोग-वियोग में रहते हुए नाना रूप धारण करते हैं। सृष्टि की विविधता उन्हों रूपों में से निखार पाती है। . ___ यह मिट्टी क्या है ? पृथ्वी के जीवों का शरीर ही तो है। यह जल और क्या है ? अग्नि, वायु, वनस्पति और जंगम-ये सभी शरीर हैं, जीवित या मृत। हमारे सामने ऐसी कोई भी वस्तु दृश्य नहीं है, जो एक दिन किसी जीव का शरीर न रही हो / शरीर और क्या है ? सूक्ष्म को स्थल बनाने और अदृश्य को दृश बनाने का एक माध्यम है। शरीर और जीव का संयोग सृष्टि के परिवर्तन और संचलन का मुख्य हेतु है / २-कर्मवाद और लेश्या परिस्थिति में ही गुण और दोष का आरोप वे लोग कर सकते हैं, जो आत्मा में विश्वास नहीं करते / आत्मा को मानने वाले लोग आन्तरिक और बह्य दोनों में गणदोष देखते हैं और अन्तिम सच्चाई तो यह है कि आतरिक-विशुद्धि से ही बाहर की विशुद्धि होती है तथा आन्तरिक दोष से हो बाहर में दोष निप्पन्न होता है। अमितगति ने इसी भावभाषा में कहा है अन्तर्विशुद्धतो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यो बहः / बाह्य हि कुरुते दोषं, सवमान्तरदोषतः // बाहरी परिस्थिति से वे ही व्यक्ति प्रभावित होते हैं, जो विजातीय तत्वों से अधिक सम्पृक्त हैं / जिनका विजातीय तत्त्वों से सम्पर्क कम है, जिनकी चेतना अपने में ही लीन है, वे बाहर से प्रभावित नहीं होते। इसी सत्य को इस भाषा में भी प्रतुत किया ज' सकता है कि जो बाहरी संगों से मुक्त रहता है, उसकी चेतना अपने में लीन रहती है १-उत्तराध्ययन, 36 / 48 / .. . २-मूलाराधना, अमितगति, 1997 / - ३-मूलाराधना, 7.1912 : मंदा हुंति कसाया, बाहिरसंग विजढस्स सव्वस्स / गिण्हह कसायबहुलो, चेव हु सव्वं पि गंथकलिं //
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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