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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 ४-सामाचारी 166 के प्रति राग तथा अमनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति द्वष उत्पन्न नहीं होता। आत्मा पुद्गल विमुख बन जाती है और पुद्गल विमुख आत्मा ही पुद्गलों से विमुक्त होती है। बाह्य-जगत् से हमारा जो पौद्गलिक सम्बन्ध है, वही हमारा बन्धन है और पौद्गलिक सम्बन्ध का जो विच्छेद है, वही हमारी मुक्ति / ' ४-सामाचारी जैन तीर्थङ्कर धर्म को व्यक्तिगत मानते थे, फिर भी उन्होंने उसकी आराधना को सामूहिक बनाया / वीतराग हर कोई व्यक्ति हो सकता था, जो कषाय-मुक्ति की साधना करता ; किन्तु तीर्थङ्कर हर कोई नहीं हो सकता था। वह वही हो सकता, जो तीर्थ की स्थापना करता यानि जनता के लिए साधना का समान धरातल प्रस्तुत करता और साधना के लिए उसे संगठित करता। भगवान् महावीर केवल अर्हत् या वीतराग ही नहीं थे, किन्तु तीर्थङ्कर भी थे। उनका तीर्थ बहुत शक्तिशाली और सुसंगठित था। वे अनुशासन, व्यवस्था और विनय को बहुत महत्त्व देते थे। उनके तीर्थ में हजारों साधुसाध्वियाँ थीं। उनकी व्यवस्था के लिए उनका शासन ग्यारह (या नौ) गणों में विभक्त था। प्रत्येक गण एक गणधर के अधीन होता था / महावीर के ग्यारह गणधर थे / वर्तमान में हमें जो साहित्य, साधनाक्रम और सामाचारी प्राप्त हैं, उसका अधिकांश भाग पाँचवें गणधर सुधर्मा के गण का है। उत्तराध्ययन आदि सूत्रों से जाना जाता है कि महार्वर ने गण की व्यवस्था के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान किया(१) आवश्यकी-गमन के प्रारम्भ में मुनि को आवश्यकी का उच्चारण करना चाहिए। यह इस बात का सूचक है कि उसका गमनागपन प्रयोजन शून्य नहीं होना चाहिए। (2) निषेधिको- ठहरने के समय मुनि को निषेधिकी का उच्चारण करना चाहिए। यह इस बात का सूचक है कि प्रयोजन पूरा होने पर मुनि को स्थित हो जाना चाहिए। (3) आप्रच्छना- मुनि अपने लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। (4) प्रतिप्रच्छना- मुनि दूसरे मुनियों के लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व उसे आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। एक बार एक प्रवृत्ति के लिए स्वीकृति प्राप्त की, फिर वही काम करना हो तो उसके लिए दुबारा स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए / १-उत्तराध्ययन, 29 / 62-66 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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