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________________ 114 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ने बौद्ध-धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किन्तु, शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में भारत में बौद्ध-धर्म लुप्त नहीं, प्रबल होता देखा जाता है। यह नालन्दा के उत्कर्ष और विक्रमशीला की स्थापना का समय था। आठवीं सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राज-वंश स्थापित हुआ था। यही समय है, जबकि नालन्दा ने शान्तरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किए / तंत्रमत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलताएं भले ही बढ़ रही हों, किन्तु जहाँ तक विहारों और अनुयायियों की संख्या का सम्बन्ध है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अन्त तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था। उत्तरी भारत का शक्तिशाली गहड़वार-वंश केवल ब्राह्मण-धर्म का ही परिपोषक नहीं था, बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था। गहड़वार रानी कुमार देवी ने सारनाथ में 'धर्मचक्र महाविहार' की स्थापना की थी और गोविन्दचन्द्र ने 'जेतवन महाविहार' को कई गाँव दिए थे। अंतिम गहड़वार राजा जयचन्द के भी दीक्षा-गुरु जगन्मिजानन्द (मित्रयोगी) एक महान् बौद्ध सन्त थे, जिन्होंने कि तिब्बत में अपने शिष्य जयचन्द को पत्र लिखा था, जो आज भी 'चन्द्रराज-लेख' के नाम से तिब्बती भाषा में उपलब्ध है। गहड़वारों के पूर्वी पड़ोसी पाल थे, जो अंतिम क्षण तक बौद्ध रहे / दक्षिण में कोंकण का शिलाहार-वंश भी बौद्ध था। दूसरे राज्यों में भी बौद्ध काफी संख्या में थे। स्वयं शंकराचार्य की जन्मभूमि केरल भी बौद्ध-शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पाई थी, उसने तो बल्कि बौद्धों के 'मंजुश्री मूलकल्प' की रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुँचाया। वस्तुतः बौद्ध-धर्म को भारत से निकालने का श्रेय या अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है। "फिर बौद्ध-धर्म भारत से नष्ट कैसे हुआ ? तुर्कों का प्रहार जरूर इसमें एक मुख्य कारण बना। मुसलमानों को भारत से बाहर मध्य-एशिया में जफरशां और वक्षु की उपत्यकाओं, फर्गाना और बाहलीक की भूमियों में बौद्धों का मुकाबिला करना पड़ा। वैसा संघर्ष उन्हें ईरान और रोम के साथ भी नहीं करना पड़ा था। घुटे चेहरे और रंगे कपड़े वाले बुतपरस्त ( बुद्ध-परस्त ) भिक्षुओं से वे पहले ही से परिचित थे / उन्होंने भारत में आकर अपने चिरपरिचित बौद्ध शत्रुओं के साथ जरा भी दया नहीं दिखाई। उनके बड़े-बड़े विहार लूट कर जला दिए गए, भिक्षुओं के संघाराम नष्ट कर दिए गए। उनके रहने के लिए स्थान नहीं रह गए / देश की उस विपन्नावस्था में कहीं आशा नहीं रह गई और पड़ोस के बौद्ध देश उनका स्वागत करने के लिए तैयार थे। इस तरह भारतीय बौद्धसंघ के प्रधान कश्मीरी पण्डित 'शाक्य श्रीमद्' विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भाग कर पूर्वी बंगाल के 'जगतला' विहार में पहुंचे। जब वहाँ भी तुर्को' की तलवार गई, तो वे अपने शिष्यों के साथ भाग कर नेपाल गए। उनके आने की खबर
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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