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________________ विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताएँ : 135 कहते हैं / इनमें निवास करने वाले जीव नारको जीव कहलाते हैं / अधो. लोक का घनफल 196 धनराजु है।' मध्यलोक: अधोलोक ओर ऊर्ध्वलोक के मध्य में मध्यलोक है, इसे तिर्यक्लोक भी कहते हैं / सामान्य मान्यता यह है कि इस लोक में एक-दूसरे को वेष्टित करते हुए असंख्यात् द्वीप और समुद्र हैं। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथ मूलाचार में सोलह द्वीपों के नामों का उल्लेख करके आगे कहा गया है कि इस प्रकार एक दूसरे से द्विगुणित-द्विगुणित क्षेत्रफल वाले असंख्यात् द्वोपसमुद्र मध्यलोक में हैं।२ इन द्वीपों में से पुष्करवरद्वीप के बोचों-बोच मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे यह द्वीप दो भागों में विभक्त है / आधा पुष्करवरद्वीप, जम्बूद्वीप और घातकीखण्डद्वीप मिलकर अढ़ाईद्वीप कहलाते हैं, इन्हीं अढ़ाईद्वीपों में मनुष्य निवास करते हैं इससे आगे मनुष्यों का निवास स्थान नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि यह मध्यलोक झालर की आकृति के समान है। ऊर्ध्वलोक: ऊर्ध्वलोक में मुख्य रूप से वैमानिक देव निवास करते हैं, इसलिए इस लोक को देवलोक तथा स्वर्गलोक भी कहते हैं। ऊर्ध्वलोक के दो भाग हैं -(1) कल्प तथा (2) कल्पातीत / कल्पों में उत्पन्न देव कल्पोत्पन्न कहलाते हैं, इन देवों में स्वामी-सेवक भाव होता है / कल्पों के ऊपर स्थित अहमिंद्र देव कल्पातीत विमानवासी कहलाते हैं / इनमें स्वामी-सेवक भाव नहीं होता है / कल्पातीत देव अपना स्थान छोड़कर कहीं भी आवागमन नहीं करते हैं जबकि कल्पोत्पन्नदेव निमित्त विशेष से मनुष्यलोक में आवागमन करते हैं। ऊर्ध्वलोक का घनफल 147 घनराज है।" .. जगत के स्वरूप को लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं -- 1. तिलोयपण्णत्ति,१।१।१६८; (राजु का प्रमाण असंख्यात् योजन माना जाता है)। 2. मूलाचार, गाथा 1076-1078 3. संघवी, सुखलाल-तत्त्वार्थसूत्र, पृ० 89 4. "देवा वि देवलोए निच्चं दिव्वोहिणा वियाणित्ता / . आयरियाण सरंता आसण-सयणाणि मुच्चंति / / " -सिसोदिया, सुरेश चंदावेजायं पदण्णयं, गाथा 33 - 5. तिलोयपण्यत्ति, 1111171
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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