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________________ (ख) मध्यम परिषद के देव-कामदारों के समान श्रेष्ठ काम करने वाले, जो बुलाने से भी आते हैं और बिना बुलाए भी आते हैं। (ग) बाह्य परिषद के देव-कर्मचारी के समान सभी काम करने वाले ये बिना बुलाए आते हैं और अपने-अपने काम में तत्पर रहते हैं। 5. आत्मरक्षक-इन्द्र की रक्षा में हर समय तत्पर। राजा के अंगरक्षक के समान कवच धारण कर अस्त्र-शस्त्र सहित इन्द्र के पास हर समय खड़े रहते हैं। 6. लोकपाल-इन्द्र के आदेशानुसार उस-उस विभाग की रक्षा करने वाले, अपराधियों को यथायोग्य दंड देने वाले लोकपाल कहे जाते हैं। 7. अनीक-ये सात प्रकार की सेना के रूप में इन्द्र के काम आते हैं। हाथी, घोड़े, रथ, महिष, पैदल, गंधर्व और नाट्य आदि रूप में वैक्रिय शक्ति द्वारा रूप बनाकर इन्द्र के सिपाही के रूप में कार्य करते हैं। गंधर्व अनीक देव' मधुर गान-तान करते हैं और नाटक अनीक देव' 32 प्रकार के मनोरम नाट्य आदि करते हैं। 8. प्रकीर्णक-ये नगरवासियों या प्रांतवासियों के समान होते हैं। 9. आभियोगिक-ये दास के समान होते हैं। विमानों को खींचने और वाहन आदि रूप में कार्यरत रहते हैं। 10. किल्विषिक-ये चंडाल के समान अशुभ कर्म करने वाले नीच जाति के देव होते हैं। देव अवस्था को प्राप्त करके भी ये अज्ञानी, पापशील, द्वेषी और दुराचारी होते हैं, अत: देवलोक में रहकर भी ये उत्तम देवों के स्थान से नीचे दूर अधोभाग में रहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं-(क) तीन पल्य वाले–ये किल्विषी भवनपति के देवलोकों से लेकर पहले-दूसरे वैमानिक देवलोक तक होते हैं, इनकी आयु तीन पल्योपम की होती है एवं देह सात हाथ की होती है। (ख) तीन सागरोपम वाले–ये देव तीसरे-चौथे देवलोक के नीचे रहकर चौथे देवलोक तक के देवों के काम आते हैं। (ग) तेरह सागरोपम वाले–पाँचवे देवलोक के ऊपर और छठवें देवलोक के नीचे इनका स्थान है। 13 सागरोपम की स्थिति वाले ये देव छठे लातंक कल्प तक के देवों का दास योग्य कर्म करते हैं। देव, गुरु, धर्म की निन्दा करने वाले, पूज्य व्यक्तियों का अनादर-अपमान करने वाले और तप-संयम की चोरी करने वाले मरकर किल्विषी देवों में जन्म लेते हैं। परिणामस्वरूप वहाँ ये सब देवों की घृणा के पात्र बनते हैं। ये कुरूप और अशुभ विक्रिया करनेवाले होते हैं। इन्द्र सभा में इनको प्रवेश नहीं मिलता। व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल के सिवा शेष आठ भेद होते हैं। ज्योतिष देवों के महिष सिवाय छह प्रकार का सैन्य है। ___ वस्तुतः कल्पोपपन्न देवलोकों में देवलोक का सम्पूर्ण साम्राज्य इन्द्र के अधीन है। किन्तु जब इन्द्र की आयुष्य पूर्ण हो जाती है और कम से कम एक समय व अधिक से अधिक 6 मास देवलोक इन्द्र से रहित होता है, तब चार-पाँच सामानिक देव मिलकर इन्द्र स्थान का संचालन करते हैं। प्रत्येक इन्द्र का निवास अपने-अपने देवलोक के अंतिम प्रतर के कल्पावतंसक विमान में होता है, उसके चारों ओर लोकपाल देवों के निवास होते हैं। कहा गया है कि एक इन्द्र के भव में दो क्रोड़ाक्रोड़ 85 लाख क्रोड़,71 हजार क्रोड़, 428 क्रोड़, 57 लाख 14 150 सचित्र जैन गणितानुयोग
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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