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________________ जीवन और मृत्यु की वक्र रेखा 67 . जीवन और मृत्यु में सातत्य कुछ विवेचनों द्वारा यह ज्ञात होता है कि जीवन और मृत्यु की घटनाएँ पूर्ण रूप से विरोधात्मक (Antithetic) नहीं हैं। इनमें एक सातत्य है जो इस खाई पर पुल बनाता है / प्रत्येक आघात के बाद जीव की अनुक्रियात्मकता कुछ देर के लिए समाप्त हो जाती है, इसके बाद वह धीरे-धीरे सचेत होता है। ज्ञानशून्यता का समय आघात की गहराई पर निर्भर है। इस प्रकार चेतना और ज्ञानशून्यता, जो जीवन और मृत्यु की प्रतीक हैं, बारी-बारी से घटित होती हैं / वस्तुतः हमारा जीवन आरंभमाण मृत्युओं का तारतम्य है। हल्की उद्दीपना के बाद चेतना शीघ्र ही लौट आती है, किन्तु अत्यधिक भारी आघात के बाद वह नहीं लौटती। मृत्यु उद्दीपना की चरम स्थिति है। लाजवन्ती की मध्यम, भारी और अत्यधिक उद्दीपना की अन क्रिया के अभिलेख में हमें कतिपय लाक्षणिक अन्तर मिलते हैं। पहली दशा में चेतना पन्द्रह मिनट में लौटती है, जैसा चित्र सं० 4 में दिखाया गया है / जहाँ चेतना की रेखा अक्ष (Axis) या आधार-रेखा तक पहुँच जाती है। इससे अधिक उद्दीपना द्वारा चेतना आने का समय एक घंटे का हो जाता है तथा चेतना-रेखा और अधिक दूरी पर अक्ष से मिलती है। अब तक तो चेतना के लौटने को सम्भावना रहती है किन्तु आघात इतना भारी हो सकता है कि मृत्यु हो सकती है और अंगों का संकुचन इतना प्रचण्ड हो सकता है कि वही मृत्यु का संकुचन सिद्ध हो सकता है / अब चेतना-रेखा अक्ष के समान्तर हो जायगी और फिर उससे कभी नहीं मिल सकेगी। - अब हम एक अवतल (Concave) दर्पण में किसी वस्तु के वास्तविक बिम्ब के विषय में संपरीक्षण करें। प्रतिबिम्बित किरणे पार होकर अक्ष पर मिलती हैं और वहीं वास्तविक बिम्ब बनता है। जैसे-जैसे यह वस्तु पास लायी जाती है, वैसे ही वैसे बिम्ब दूर होता जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार भारी उद्दीपना द्वारा चेतना-रेखा / ऐसा होते-होते एक समय आता है जब प्रतिबिम्बित किरणें कभी नहीं मिलतीं और दर्पण के इस ओर कोई भी बिम्ब नहीं बनता / तब क्या यह पूर्णत: लुप्त हो गया ? ऐसा नहीं होता, क्योंकि अब यह बिम्ब दर्पण की दूसरी ओर चला जाता है। भारी घातक आघात के बाद प्रकृति को प्रतिबिम्बित करने वाले 'बृहत्-दर्पण' के इस ओर चेतना लौटकर नहीं आती / क्या यह सम्भव है कि उस ओर फिर से नवीन चेतना लौटती है, उस ओर जो हमसे छिपा है। . हमारे इन मूक साथियों ने, जो हमारे द्वार के आस-पास उग रहे हैं, अब हमसे अपने जीवन, कम्पन और मृत्यु-आकुंचन (Spasm) की कहानी ऐसी लिपि में कही है
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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