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________________ वनस्पति में प्रतिवर्त चाप की खोज 203 जैसा पहले ही स्पष्ट किया गया है, मन्द उददीपना वनस्पति के कल्याण के लिए होती है। इस प्रकार की उद्दीपना द्वारा जीव को स्वस्थ बल मिलता है। दूसरी ओर तीव्र उद्दीपना जीवन के लिए घातक है / अब हम देखें कि किस प्रकार मन्द या तीव्र उददीपना प्राणी की अभिवृत्ति को प्रभावित करती है। जब बिल्ली के बच्चे को धीरे से थपथपाया जाता है, तो वह फूलकर गेंद जैसा बन जाता है; प्रसन्नता से घुरघुराता है और अपने प्यार करने वाले के प्रति आकर्षित होता है। किन्तु जब एक बड़े डण्डे का उपयोग होता है, तब अनुक्रिया में एक मूल परिवर्तन होता है / विस्तार के स्थान पर प्रचण्ड संकुचन होता है। प्रसन्न घुरघुगहट के स्थान पर पीडायुक्त चीत्कार और आकर्षण के स्थान पर द्रुत घृणा होती है, और वह खुले दरवाजे की ओर भागता है। यदि दरवाजा बन्द रहता है तो वह कुर्सी के नीचे छिप जाता है। लाजवन्ती की अभिवृत्ति पर भी मन्द या तीव्र उद्दीपना का इसी प्रकार का लाक्षणिक प्रभाव होता है। वनस्पति के लिए प्रकाश कल्याणकारी होता है, अतः पर्ण अपना समायोजन इस प्रकार करता है कि अधिकतम मात्रा में प्रकाश मिल सके। किन्तु जब प्रकाश इतना तीव्र होता है कि हानिकार हो जाय तो भय-संकेत का एक संवेदी संवाद केन्द्र में पहुँचता है और वहाँ से सब बाह्य अंगों को तत्काल हटने का आदेश मिलता है। दुबक जाना सामान्य लाजवन्ती (Mimosa pudica) एक ऐसा खर-पतवार है जो ऊष्ण देशों में भूमि के विस्तृत भाग को ढक देता है / इसके आनत (Procum bent)तनों में अत्यधिक पर्ण होते हैं, जिससे उतना भूमिखण्ड एक चमकीला हरा पुंज लगता है / इस वनस्पति को चरने वाले पशुओं से जीवन का भय है, जिनके आक्रमण से इसके पर्ण गिर जाते हैं। ऐसा अनुमान है कि पर्णगति द्वारा पशुओं को डराकर भगाने का प्रयोजन पूरा किया जाता है, क्योंकि पशुओं को वृक्षों के झूमने का पूर्व अनुभव होता ही है, पर गाय को इतनी बुद्धि नहीं कि वह लाज वन्ती के पर्णों का हिलना देखे और उससे डर जाय। फिर भी तंत्रिका-प्रतिवर्त वनस्पति की सुरक्षा को भिन्न प्रकार से बढ़ाता है / जब पत्तियों से भरा एक अधः पर्णवृन्त कुचला या काटा जाता है तो पौधे की सम्पूर्ण लम्बाई में तत्काल उत्तेजक आवेग का पारेषण होता है / एक पर्ण का व्यवहार इस प्रकार का होता है--संवेदी प्रेरणा उसे इस प्रकार गिराती है कि भूमि से चिपक जाता है, तब केन्द्र के प्रतिवर्त प्रेरक आवेग का उत्पादन करते हैं, जिसके द्वारा चारों अधः पर्णवृन्त पार्श्वतः एक दूसरे की ओर पहुंचते हैं और सब पर्ण ऊपर की ओर बन्द होते हैं। इस द्रुत परिवर्तन से अधिक कुछ भी विस्मयकारी
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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