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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 78 हेत्वाभासबलाज्ज्ञानं लिङ्गिनि ज्ञानमुच्यते। स्वार्थानुमाविपर्यासो बहुधा तद्धियां मतः॥२३॥ कः पुनरसौ हेत्वाभासो यतो जायमानं लिङ्गिनि ज्ञानं स्वार्थानुमानविपर्ययः। सहजो मतिः स्मृतिसंज्ञाचिन्तानामिव स्वविषये तिमिरादिकारणवशादुपगम्यते इति पर्यनुयोगे समासव्यासतो हेत्वाभासमुपदर्शयति हेत्वाभासस्तु सामान्यादेकः साध्याप्रसाधनः / यथा हेतुःस्वसाध्येनाविनाभावी निवेदितः // 24 // त्रिविधोऽसावसिद्धादिभेदात्कश्चिद्विनिश्चितः / स्वरूपाश्रयसंदिग्धज्ञातासिद्धश्चतुर्विधः // 25 // तत्र स्वरूपतोऽसिद्धो वादिनः शून्यसाधने। सर्वो हेतुर्यथा ब्रह्मतत्त्वोपप्लवसाधने // 26 // में वह विपर्ययज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। जैसे कि गर्भ में स्थित पाँचवें पुत्र का गौरवर्ण होते हुए भी “जितने भी मित्रा स्त्री के पुत्र हैं वे सब श्याम हैं" - इस प्रकार दृश्यमान चार पुत्रों के अनुसार. व्याप्ति बना लेना कुचिंताज्ञान है; जहाँ-जहाँ अग्नि होती है वहाँ-वहाँ धूम होता है, यह भी लोहे के गोले में अंगार का विसंवाद हो जाने से व्याप्तिज्ञान का विपर्यय है॥२२॥ हेतु नहीं, किन्तु हेतुसमान दीखने वाले हेत्वाभासों की सामर्थ्य से जो साध्यविषयक ज्ञान हो रहा कहा जाता है, वह अनुमान को जानने वाले विद्वानों के यहाँ स्वार्थानुमान का विपर्यय माना गया है। जबकि भेद प्रभेदरूप से बहुत प्रकार के हेत्वाभास हैं। अतः तज्जन्य अनुमानाभास. को भी बहुत प्रकार के मानना यह समुचित ही है।॥२३॥ यह हेत्वाभास फिर क्या पदार्थ है जिससे कि साध्य को जानने में उत्पन्न हो रहा ज्ञान स्वार्थानुमान का सहज विपर्यय कहा जाता है? और जो मतिज्ञान, स्मरण ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान इनके समान वह स्वार्थानुमान का विपर्यय भी अपने विषय में तमारा, कामल आदि कारणों के वश से हो रहा स्वीकार कर लिया जाय। इस प्रकार प्रतिपाद्य का समीचीन प्रश्न होने पर आचार्य संक्षेप और विस्तार से हेत्वाभास का प्रदर्शन करते हैं - सामान्यरूप से “साध्य को नहीं साधने वाला हेतु" यह एक ही हेत्वाभास कहा गया है। जैसे कि अपने साध्य के साथ अविनाभाव रखने वाला सद्धेतु एक प्रकार का है, उसी प्रकार अपने साध्य को उत्तम रीति से नहीं साधने वाला हेत्वाभास भी एक प्रकार का है॥२४॥ किन्हीं जैन विद्वानों के द्वारा विशेषरूप से असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन भेदों से तीन प्रकार का हेत्वाभास निश्चित किया गया है। उसमें असिद्ध नाम का हेत्वाभास तो स्वरूपासिद्ध, आश्रयासिद्ध संदिग्धासिद्ध और अज्ञातसिद्ध इन भेदों से चार प्रकार का माना गया है // 25 // ___उन असिद्धहेत्वाभास के भेदों में वादी के यहाँ स्वरूप से असिद्ध हेत्वाभास इस प्रकार है। जैसे शून्यवाद को साधने में सभी हेतु स्वरूपासिद्ध हो जाते हैं। अथवा अद्वैत ब्रह्म को साधने में दिया गया प्रतिभासमानत्वहेतु अपने स्वरूप से असिद्ध है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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