SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*७१ बहिरन्तश्च वस्तूनां सादृश्ये वैसदृश्यवाक् / वैसदृश्ये च सादृश्यैकान्तवादावलम्बनम् // 13 // द्रव्ये पर्यायमात्रस्य पर्याये द्रव्यकल्पना। तद्वयात्मनि तद्भेदवादो वाच्यत्ववागपि॥१४॥ उत्पादव्ययवादश्च ध्रौव्ये तदवलम्बनम् / जन्मप्रध्वंसयोरेवं प्रतिवस्तु प्रबुद्ध्यताम् // 15 // सति तावत्कात्य॑नैकदेशेन च विपर्ययोऽस्ति तत्र कात्र्येन शून्यवाद: स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालतः / सर्वस्य सत्त्वेन प्रमाणसिद्धत्वात्। विशेषतस्तु सति ग्राह्यग्राहकभावे कार्यकारणभावे च वाच्यवाचकभावादौ च तदसत्त्ववचनम्। तत्र संविदद्वैतस्य वावलम्बनेन सौगतस्य, पुरुषाद्वैतस्यालम्बनेन ब्रह्मवादिनः, शब्दाद्वैतस्याश्रयेण वैयाकरणस्येति प्रत्येयं / विपर्ययत्वं तु तस्य ग्राह्यग्राहकभावादीनां प्रतीतिसिद्धं / तद्वचनात्तथा बहिरर्थे भिन्ने घट, पट, वस्त्र आदि बहिरंग पदार्थ और आत्मा, ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा आदि अंतरंग वस्तुओं के कथंचित् सादृश्य होने पर भी सर्वथा विलक्षणपने का कथन करना यह विशेष के ही एकान्त को कहने वाले बौद्धों का विपर्ययज्ञान है। एवं दूसरा बहिरंग और अंतरंग पदार्थों का कथंचित् वैलक्षण्य होने पर भी “वे सर्वथा सदृश ही हैं। इस प्रकार सामान्य एकान्तवाद का अवलम्ब लेकर कथन करना सदृश एकान्तवादी विद्वान् का विपरीत ज्ञान है॥१३॥ . अतीत, अनागत, वर्तमान पर्यायों में अन्वयरूप से व्यापक नित्यद्रव्यों के होते हुए भी केवल पर्यायों की ही कल्पना करना अथवा पर्यायों के होते हुए भी केवल द्रव्यों की ही कल्पना करना बौद्ध और सांख्यों की विपर्यय कल्पना है तथा द्रव्य और पर्याय दोनों से तदात्मक वस्तु के होने पर फिर आग्रहवश उने द्रव्यपर्यायों के भेद को ही कहना वैशेषिकों का विपर्यय ज्ञान है। पदार्थों का शब्दों द्वारा निरूपण नहीं हो पाता है। अतः सम्पूर्ण तत्त्व अवाच्य है। यह अवक्तव्य एकान्त का विपर्यय भी किन्हीं बौद्धों में स्थित है। ये सब आहार्य कुश्रुतज्ञान हैं॥१४॥ द्रव्य की अपेक्षा या कालान्तरस्थायी स्थूल पर्याय की अपेक्षा पदार्थों का ध्रुवपना होते हुए भी केवल उत्पाद और व्यय के एकान्त का ही पक्ष ग्रहण करना क्षणिक एकान्तरूप विपर्यय है। तथा इसके विपरीत दूसरा एकान्त यह है कि पदार्थों के उत्पाद और व्यय की प्रत्यक्ष द्वारा सिद्धि होते हुए भी उस ध्रौव्य का सहारा लेकर सर्वथा पदार्थों को नित्य ही समझते रहना विपर्यय ज्ञान है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में विपर्यय ज्ञान की व्यवस्था समझ लेनी चाहिए // 15 // विद्यमान पदार्थों में कोई तो परिपूर्णरूप से विपर्ययज्ञान मानते हैं और कोई एकदेश करके विपर्यय ज्ञान मानते हैं। उनमें परिपूर्णरूप से विपर्यय मानना शून्यवाद है, क्योंकि अपने स्वरूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से, अस्तित्व से सम्पूर्ण पदार्थों की प्रमाणों से सिद्धि हो रही है। फिर भी पदार्थों को स्वीकार नहीं करना, यह तत्त्व उपप्लववादी या शून्यवादी प्राज्ञों का पूर्णरूप से होने वाला विपर्यय है। एकदेश से या विशेषरूप से विपर्यय इस प्रकार है कि पदार्थों में ग्राह्यग्राहक भाव, कार्यकारण भाव, वाच्यवाचकभाव, आधार आधेयभाव, वध्यघातकभाव आदि सम्बन्धों के होने पर भी उन ग्राह्यग्राहकभाव आदि का असत्त्व कहना विपर्यय है। उनमें संवेदनाद्वैत का आलम्बन करने से बौद्ध को विपर्ययज्ञान हो रहा है और पुरुषाद्वैत
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy