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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 64 स्वविषयस्य तेन ग्रहणात्। ततो न संशयात्मावधिः। विपर्ययात्मा तु मिथ्यात्वोदयाद्विपरीतवस्तुस्वभावश्रद्धानसहभावात्सम्बोध्यते / तथानध्यवसायात्माप्याशु उपयोगसंहरणाद्विज्ञानान्तरोपयोगाद्गच्छत्तृणस्पर्शवदुत्पाद्यते। दृढोपयोगावस्थायां तु नावधिरनध्यवसायात्मापि कथमेवावस्थितोऽवधिरिति चेत्, कदाचिदनुगमनात्कदाचिदननुगमनात्कदाचिद्वर्धमानत्वात्कदाचिद्धीयमानत्वात्तथा विशुद्धिविपरिवर्त्तमानादवस्थितावधिरेकेन रूपेणावस्थानान्न पुनरदृष्टोपयोगत्वात्स्वभावपरावर्त्तनेऽपि, तस्य तथा तथा दृढ़ोपयोगत्वाविरोधात् / कुतः पुनस्त्रिष्वेव बोधेषु मिथ्यात्वमित्याह; मिथ्यात्वं त्रिषु बोधेषु दृष्टिमोहोदयाद्भवेद् / तेषां सामान्यतस्तेन सहभावाविरोधतः॥१४॥ नहीं होने पर तथा विशेष का स्मरण करके संशयज्ञान होता है, वह संशय अवधिज्ञान के विषय में होना संभव नहीं है। वस्तुतः अपने को ढकने वाले अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमविशेष स्वरूप उस अवधिज्ञान के द्वारा अपने विषयभूत सामान्य विशेष धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण होता है अर्थात् अवधिज्ञान अपने विषय के विशेष अंशों को भी साथ-साथ अवश्य जान लेता है। अत: अवधिज्ञान संशयस्वरूप नहीं होता है। मिथ्यात्व कर्म के उदय से वस्तुस्वभाव के विपरीत श्रद्धान में कारणभूत मिथ्यादर्शन के साथ रहने से अवधिज्ञान विपर्ययस्वरूप कहा जाता है अर्थात् जिस आत्मा में मिथ्यादर्शन का उदय है उसका अवधिज्ञान भी विपरीत ज्ञान कहा जाता है। तथा शीघ्र अपने उपयोग का संकोच करने से या दूसरे विज्ञान में उपयोग के चले जाने से चलते हुए पुरुष के तृण छू जाने पर हुए अनध्यवसाय ज्ञान के समान अवधिज्ञान भी अनध्यवसायस्वरूप उत्पन्न होता है। ज्ञेय विषय में दृढ़ रूप से लगे हुए उपयोग की अवस्था में अवधिज्ञान अनध्यवसायस्वरूप नहीं होता है। उस दशा में केवल एक विपर्यय भेद ही घटित होता है। इस प्रकार अनध्यवसाय दशा में दृढ़ उपयोग नहीं होने के कारण अवधिज्ञान अवस्थित कैसे समझा जाता है? यानी अवधिज्ञान के छह भेदों में से पाँचवाँ भेद अवस्थित तो अवस्थित नहीं हो पाता है। इस प्रकार प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि कभी-कभी दूसरे देश या दूसरे भव में अनुगमन करने से और कभी नहीं करने से और अवधिज्ञान अनवस्थित है तो भी एकरूप से अवस्थान हो जाने से अवस्थित माना जाता है। फिर दृढ़ उपयोगपना न होने के कारण स्वभाव का परिवर्तन होने से अवस्थितपना नहीं है, जैसे अवधिज्ञान के अनुगामी होना, अननुगामी होना, बढ़ना, घटना होने पर भी दृढ़ उपयोगपने का कोई विरोध नहीं है। अत: विपर्यय या अनध्यवसाय की अवस्था में भी अवस्थित नाम का पाँचवाँ भेद अवधिज्ञान में घटित हो जाता है। तीनों ही ज्ञानों में मिथ्यापना किस कारण से हो जाता है? ऐसी जानने की इच्छा होने पर आचार्य कहते हैं - मति, श्रुत, अवधि इन तीनों ज्ञानों में मिथ्यापन दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होता है, क्योंकि सामान्यरूप से उन तीनों ज्ञानों का उस मिथ्यात्व के साथ सद्भाव पाये जाने का कोई विरोध नहीं है // 14 //
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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