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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 52 क्षायोपशमिकं ज्ञानं सोपयोगं क्रमादिति / नार्थस्य व्याहतिः काचित्क्रमज्ञानाभिधायिनः।६॥ निरुपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्य सहभाववचनसामर्थ्यात् सोपयोगस्य क्रमभावः क्षायोपशमिकस्येत्युक्तं भवति। तथा च नार्थस्य हानिः क्रमभाविज्ञानावबोधकस्य सम्भाव्यते। अत्रापराकूतमनूद्य निराकुर्वन्नाह नोपयोगौ सह स्यातामित्याः ख्यापयन्ति ये। दर्शनज्ञानरूपौ तौ न तु ज्ञानात्मकाविति // 7 // ज्ञानानां सहभावाय तेषामेतद्विरुद्ध्यते / क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति युक्तं ततो न तत् // 8 // यदापि क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति समन्तभद्रस्वामिवचनमन्यथा व्याचक्षते विरोधपरिहारार्थं तदापि दोषमुद्भावयति ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए ज्ञान यदि उपयोगसहित होंगे तो क्रम से ही होंगे। इस प्रकार क्रम से ज्ञानों की उत्पत्ति का कथन करने वाले स्याद्वादी विद्वान् के यहाँ अर्थ का व्याकत नहीं होता है। अर्थात् - बद्ध आत्मा में देशघाती प्रकृतियों के उदय की अवस्था में उपयोग स्वरूप ज्ञान या दर्शन की एक समय में एक ही पर्याय हो सकती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण के क्षय हो जाने पर अबद्ध आत्मा में दो पर्याय हो जाने का व्यपदेश हो तो कोई क्षति नहीं है। संसारी जीव क्रम से द्रष्टा ज्ञाता है और केवली भगवान युगपत् द्रष्टा ज्ञाता हैं / / 6 / / . निरुपयोग लब्धि आत्मक अनेक ज्ञानों के एक साथ हो जाने के कथन की सामर्थ्य से यह बात अर्थापत्ति द्वारा कह दी जाती है कि उपयोग सहित क्षायोपशमिक ज्ञानों का क्रम-क्रम से ही उत्पाद होता है। और इसलिए क्रम से होने वाले ज्ञानों को समझाने वाले स्याद्वादी के किसी प्रयोजन की हानि संभव नहीं पूर्व में अन्य मतावलम्बियों का वर्णन करके पुनः उनका खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं- कोई कहते हैं कि ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं। किन्तु ज्ञानस्वरूप दो उपयोगों के साथ हो जाने का निषेध नहीं है। अर्थात् - एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग ये दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं किन्तु मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अथवा चाक्षुष प्रत्यक्ष और रसना इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ऐसे दो ज्ञान तो एक काल में हो सकते हैं। इसका खण्डन करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि उन महापुरुषों के उपयोग आत्मक ज्ञानों का सहभाव कथन करना इस सिद्धान्त वाक्य से विरोध पड़ता है कि "क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम्"। श्री समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में कहा है कि क्षयोपशम से जन्य जो ज्ञान स्याद्वादन्याय से संस्कार युक्त होकर क्रम-क्रम से होते हैं, वे भी प्रमाण हैं अत: इस प्रकार ज्ञानों का सहभाव कथन करना युक्तिपूर्ण नहीं है। अर्थात्-उपयोगात्मक दो ज्ञान एक साथ नहीं होते हैं॥७ 8 // विरोध दोष का परिहार करने के लिए जब कभी वे विद्वान् क्रम से होने वाले जो ज्ञान हैं वे प्रमाण हैं इस प्रकार श्री समन्तभद्र स्वामी के वचनों का दूसरे प्रकारों से व्याख्यान करते हैं तब भी उन पर श्री विद्यानन्द आचार्य दोषों को प्रकट करते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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