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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 50 द्वेधा मतिश्रुते स्यातां ते चावधियुते क्वचित् / मनःपर्ययज्ञाने वा त्रीणि येन युते तथा // 3 // प्रथमं मतिज्ञानं क्वचिदात्मनि श्रुतभेदस्य तत्र सतोऽप्यपरिपूर्णत्वेनानपेक्षणात् प्रधान के वलमेतेनै कसंख्यावाच्यप्येक शब्दो व्याख्यातः स्वयमिष्टस्यैकस्य परिग्रहात् / पंचानामन्यतमस्यानिष्टस्यासम्भवात्। क्वचित्पुन मतिश्रुते क्वचित्ते वावधियुते मनःपर्यययुते चेति त्रीणि ज्ञानानि संभवन्ति क्वचित्ते एवावधिमन:पर्ययद्वयेन युते चत्वारि ज्ञानानि भवन्ति। पंचैकस्मिन्न भवन्तीत्याह एक आत्मा में एक समय में दो प्रकार के ज्ञान मति और श्रुत हो सकते हैं और अवधि से युक्त वे दोनों ज्ञान किसी आत्मा में युगपत् तीन ज्ञान हो जाते हैं तथा किसी आत्मा में मन:पर्ययज्ञान के हो जाने पर उन दोनों को मिला कर तीन ज्ञान युगपत् हो जाते हैं अर्थात् - मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत, मन:पर्यय, ये तीन ज्ञान युगपत् हो सकते हैं अथवा वे तीन ज्ञान यदि मन:पर्ययज्ञान से युक्त हो जायें तो मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय इस प्रकार चार ज्ञान भी एक समय में किसी एक जीव के हो सकते हैं। एक जीव के पाँचों ज्ञानों का युगपत् होना असम्भव है॥३॥ __ किसी एक आत्मा में पहला एक मतिज्ञान होता है। यद्यपि उस मतिज्ञानी आत्मा में श्रुतज्ञान का भेद भी विद्यमान है फिर भी श्रुतज्ञान के परिपूर्ण नहीं होने के कारण उस श्रुतज्ञान की अपेक्षा नहीं की गयी है। अर्थात् - जिस एक इन्द्रिय वाले या विकलत्रय जीवों के अकेले मतिज्ञान की सम्भावना है, उन जीवों के थोड़ा मन्द श्रुतज्ञान भी है। किन्तु अनिन्द्रिय (मन) की सहायता से होनेवाले विशिष्ट श्रुतज्ञान की सम्भावना नहीं होने से वह श्रुतज्ञान विद्यमान होकर भी अविद्यमान सदृश है। एक आत्मा में एक प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है। इस उक्त कथन से एकत्व संख्या को कहने वाले भी 'एक' इस शब्द का व्याख्यान कर दिया गया है ऐसा समझ लेना चाहिए। क्योंकि श्री उमास्वामी महाराज को स्वयं इष्ट एक ज्ञान का भी संख्यावाची एक शब्द से पूरा ग्रहण हो जाता है और पाँच ज्ञानों में से चाहे कोई भी एक ज्ञान के सद्भाव का हो जाना इस अनिष्ट अर्थ की सम्भावना नहीं है। अर्थात् व्यापक अर्थ होने पर व्याप्य अर्थ आ ही जाता है अत: संख्यावाची एक शब्द का अभिप्राय करने पर एक मतिज्ञान का ही सद्भाव रखना चाहिए। अकेले श्रुतज्ञान या अकेले अवधिज्ञान अथवा अकेले मन:पर्ययज्ञान का सद्भाव असम्भव होने के कारण इष्ट नहीं किया गया है। यदि किसी एक आत्मा में दो ज्ञान हों तो फिर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो हो सकते हैं। किसी एक विवक्षित आत्मा में अवधि सहित मति, श्रुत या मनःपर्यय से सहित मतिश्रुत एक आत्मा में तीन ज्ञान हो सकते हैं। तथा किसी एक आत्मा में वे मति और श्रुत दोनों ही ज्ञान यदि अवधि और मनःपर्यय इन दोनों से युक्त हो जाते हैं तो युगपत् चारों ज्ञान हो सकते हैं। एक आत्मा में युगपत् पाँचों ज्ञान नहीं हो सकते है। इसे कहते हैं -
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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