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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 263 केनानैकांतिको हेतुरुद्भाव्यो न प्रसह्यते। क्षेत्रे क्षेत्रत्ववच्छालियोग्यत्वस्य प्रसाधने // 301 // यत्र संभवतोर्थस्यातिसामान्यस्य योगादसद्भूतार्थकल्पना हठात् क्रियते तत्सामान्यनिबंधनत्वात् सामान्यछलं प्राहुः / संभवतोर्थस्यातिसामान्यस्य योगादसद्भूतार्थकल्पना सामान्यछलमिति वचनात् / तद्यथाअहो नु खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्ते केनचित्क्वचिदाह संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति, तं प्रत्यस्य वाक्यस्य विघातोर्थविकल्पोपपत्त्याऽसद्भूतार्थकल्पनया क्रियते। यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत्संभवति वात्येपि संभवात / व्रात्योपि ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्नोस्त / तदिदं ब्राह्मणत्वं विवक्षितमर्थं विद्याचरणसंपलक्षण क्वचिद्ब्राह्मणे तादृश्येति क्वचिव्रात्येत्येति तद्भावेपि भावादित्यपि सामान्यं तेन योगाद्वक्तुरभिप्रेतादर्थात् सद्भूतादन्यस्यासद्भूतस्यार्थस्य कल्पना सामान्यछलं। तच्च न युक्तं / यस्मादविवक्षिते हेतुकस्य विषयार्थवादः प्रशंसार्थत्वाद्वाक्यस्य तत्रासद्भूतार्थकल्पनानुपपत्तिः / यथा संभवत्यस्मिन् क्षेत्रे शालय इत्यत्राविवक्षितं खेत में धान्य के योग्यपंन का क्षेत्रत्व हेतु द्वारा प्रशंसनीय साधन करने पर क्षेत्रत्व हेतु का व्यभिचार उठा दिया जाता है। अर्थात्-नैयायिकों द्वारा अनैकान्तिकपन का परिहार करने के प्रयत्न से प्रतीत हो जाता है कि वे ऐसे स्थलों पर व्यभिचार दोष को स्वीकार करते हुए ही न्यायमार्ग का अवलंब करने वाले नैयायिक कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं // 299-301 // जहाँ सम्भव अर्थ के अतिसामान्य का योग हो जाने से असद्भूत अर्थ की कल्पना हठ से की जाती है, उसे नैयायिक सामान्य कथन की कारणता से सामान्यछल कहते हैं। सम्भावनापूर्वक कहे गये अर्थ के अतिसामान्य का योग हो जाने से असम्भूत अर्थ की कल्पना करना सामान्य छल है। यह सूत्र का वचन है। जैसे विस्मयपूर्वक अवधारण सहित यो सम्भावना रूप कल्पना करनी पड़ती है कि वह मनुष्य ब्राह्मण है तो विद्यासम्पत्ति और आचरण सम्पत्ति से युक्त अवश्य होगा। इस प्रकार किसी वक्ता के द्वारा परबोधनार्थ कह चुकने पर कोई एक प्रतिवादी कहता है कि ब्राह्मण के सम्भव होते हुए विद्या, चारित्र, सम्पत्ति है। ... इस प्रकार उस वादी के प्रति इस वाक्य का विघात तो अर्थविकल्प की उपपत्तिरूप असद्भूत अर्थ की कल्पना करके यों किया जाता है जो छल का सामान्य लक्षण है कि ब्राह्मण होने के कारण उस पुरुष में विद्या, आचरण सम्पत्ति सम्भव है। ऐसा कहने पर नव संस्कार हीन कृषक ब्राह्मण में भी विद्या आचरण सम्पत्ति की संभावना होगी, क्योंकि वह भी ब्राह्मण है। अत: ब्राह्मणपना (कर्ता) विवक्षा प्राप्त विद्या, चारित्र, सम्पत्ति स्वरूप अर्थ को किसी सपक्ष ज्ञान चारित्र वाले ब्राह्मण में प्राप्त करा देता है। और किसी विपक्षरूप व्रात्य में विद्या, आचरण सम्पत्ति को अतिक्रान्त कर जाता है। क्योंकि उस विद्या, आचरण सम्पत्ति के बिना भी वहाँ व्रात्य में ब्राह्मणत्व का सद्भाव है। यह अतिसामान्य का अर्थ है। उस अतिसामान्य के योग करके वक्ता को अभिप्रेत हो रहे सद्भूत अर्थ से अन्य असद्भूत अर्थ की कल्पना करना सामान्य छल है। नैयायिक कहते हैं कि वह छल करना तो प्रतिवादी को उचित नहीं है। जिस कारण से कि हेतु के विशेषों की विवक्षा नहीं कर वादी ने ब्राह्मण रूप विषय के स्तुतिपरक अर्थ का अनुवाद कर दिया है। क्योंकि अनेक वाक्य प्रशंसा के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। असद्भूत अर्थ की कल्पना करना, जैसे कि इस खेत की भूमि में शालि
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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