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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 240 सोयमुद्योतकरः, साध्यस्यैकेन ज्ञापितत्वाव्यर्थमभिधानं द्वितीयस्य, प्रकाशिते प्रदीपांतरोपादानवदनवस्थानं वा, प्रकाशितेपि साधनांतरोपादाने परापरसाधनांतरोपादानप्रसंगादिति ब्रुवाणः प्रमाणसंप्लवं समर्थयत इति कथं स्वस्थः? कस्यचिदर्थस्यैकेन प्रमाणेन निश्चयेपि प्रमाणांतरविषयत्वेपि न दोषो दादादिति चेत्, किमिदं दाढ्यं नाम? सुतरां प्रतिपत्तिरितिचेत् किमुक्तं भवति, सुतरामिति सिद्धेः। प्रतिपत्तिाभ्यां प्रमाणाभ्यामिति चेत्, तायेन प्रमाणेन निश्चितेर्थे द्वितीयं प्रमाणं प्रकाशितप्रकाशनवद्व्यर्थमनवस्थानं वा निश्चितेपि परापरप्रमाणान्वेषणात् / इति कथं प्रमाणसंप्लव:? यदि पुनर्बहूपायप्रतिपत्तिः कथं दायमेकत्र भूयसां प्रमाणानां सो यह उद्योतकर अधिक को निग्रहस्थान का समर्थन करने के लिए इस प्रकार कहता है कि दो हेतुओं को कहने वाला वादी अधिक कथन करने से निगृहीत है। क्योंकि एक ही हेतु के द्वारा (जब) साध्य का ज्ञापन (ज्ञान) हो जाता है, साध्य की सिद्धि हो जाती है तो दूसरे हेतु का कथन करना व्यर्थ है। जैसे एक दीपक के द्वारा प्रकाशित पदार्थ को दूसरे दीपक के द्वारा प्रकाशित करना व्यर्थ है। अन्य दीपकों का उपादान करना निष्प्रयोजनीय है। अथवा प्रकाशित को प्रकाशित करने पर अनवस्था दोष भी आता है। क्योंकि हेतु द्वारा या दीपक द्वारा पदार्थ के प्रकाशित (प्रतिभासित) हो जाने पर यदि अन्य साधनों का उपादान किया जायेगा, तो उत्तरोत्तर अन्य साधनों के ग्रहण करने का प्रसंग हो जाने से अनवस्था दोष आता है। इस प्रकार प्रमाण संप्लव का समर्थन करने वाला उद्योतकर स्वस्थ कैसे हो सकता है? भावार्थ - एक ही अर्थ में प्रत्यक्ष आदि बहुत से प्रमाणों की प्रवृत्ति को प्रमाण संप्लव कहते हैं। नैयायिक, मीमांसक, जैन आदि सभी विद्वान् प्रमाण संप्लव को स्वीकार करते हैं। जैसे आगम से जानी हुई वस्तु को युक्ति से (अनुमान) से सिद्ध करते हैं और अनुमानसिद्ध वस्तु को प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा भी जानना चाहते हैं। परन्तु अधिक नामक निग्रह के भय से उद्योतकर एक प्रमाण से जानी हुई वस्तु को दूसरे प्रमाण से जानना स्वीकार नहीं करता है, वह उद्योतकर स्वस्थ कैसे हो सकता है? यदि कहो कि दृढ़ता के लिए, एक प्रमाण के द्वारा निश्चित अर्थ को भी अन्य प्रमाणों के द्वारा जानना दोषरूप नहीं है, तो जैनाचार्य कहते हैं कि वह दृढ़ता क्या है जिसके लिए एक प्रमाण के द्वारा जाने हुए पदार्थ में दूसरे प्रमाण की प्रवृत्ति होती है? यदि स्वयं अपने आप बिना परिश्रम के प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो जाने को दृढ़ता कहोगे, तो दूसरे प्रमाण की प्रवृत्ति क्यों मानी जाती है? पदार्थ की प्रतिपत्ति तो स्वयं उक्त प्रकार से सिद्ध हो चुकी है। अत: दूसरे प्रमाणों का उत्थापन करना व्यर्थ हो जाता है। यदि दो प्रमाणों से प्रतिपत्ति होना दृढ़ता है, तब तो आदि (प्रथम) प्रमाण के द्वारा निश्चित हुए अर्थ में पुनः द्वितीय प्रमाण का उत्थापन करना, प्रकाशित को प्रकाशित करने के समान व्यर्थ है। वा निश्चित पदार्थ का भी निश्चय करने में उत्तरोत्तर प्रमाणों का अन्वेषण करते रहने से अनवस्था दोष आता है। ऐसी दशा में प्रमाण संप्लव को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? यदि पुन: बहुत से उपायों की प्रतिपत्ति होना ही दृढ़पना है तथा एक विषय में बहुत से प्रमाणों की प्रवृत्ति हो जाने पर पूर्व ज्ञान में संवाद की सिद्धि हो जाती है - ऐसी मति है (ऐसा विचार है), तब तो किसी
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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