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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 224 तस्यासाधनांगत्वाव्यवस्थिते: पक्षधर्मोपसंहारवचनादित्युक्तं प्राक् / केवलं स्वदर्शनानुरागमात्रेण प्रतिज्ञावचनस्य निग्रहत्वेनोद्भावनेपि सौगतैः प्रतिज्ञाविरोधादिदोषोद्भावनं नानवसरमनुमंतव्यं, अनेकसाधनवचनवदनेकदूषणवचनस्यापि विरोधाभावात् सर्वथा विशेषाभावादिति विचारितमस्माभिः।। संप्रति प्रतिज्ञासंन्यासं विचारयितुमुपक्रममाहप्रतिज्ञार्थापनयनं पक्षस्य प्रतिषेधने। न प्रतिज्ञानसंन्यासः प्रतिज्ञाहानितः पृथक् // 179 // इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञा का उच्चारण करने का प्रयोजन केवल कथा का विच्छेद करना ही नहीं है क्योंकि प्रतिज्ञावचन साध्य की सिद्धि के व्यवस्थापक नहीं हैं अर्थात् प्रतिज्ञा वचन साध्यसिद्धि का अंग नहीं हैं। ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है। जैसे हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन साध्य की सिद्धि के अंग हैं। वैसे प्रतिज्ञा भी साध्य की सिद्धि का अंग है अर्थात् पक्षधर्म का उपसंहार वचन साध्य की सिद्धि का अंग है। क्वचित् उपनय और निगमन के कथन के बिना भी साध्य की सिद्धि हो जाती है। इस बात का पूर्व में विशद रूप से कथन कर दिया गया है। सौगत के द्वारा केवल स्वकीय (बौद्ध) दर्शन के श्रद्धान मात्र से (अनुराग मात्र से) प्रतिज्ञा-कथन के निग्रहस्थान के द्वारा वादी के प्रति प्रतिज्ञाविरोध, अनैकान्तिक आदि दोषों का उद्भावन करना बिना अवसर का नहीं मानना चाहिए। क्योंकि अनेक साधनों के अंग के कथन के समान अनेक दूषणों का कथन करना भी कोई विरोधयुक्त नहीं है। अर्थात् जैसे शिष्य को समझाने के लिए अनेक हेतुओं के द्वारा साध्य को सिद्ध किया जाता है, वैसे ही दूसरे पक्ष को निर्बल बनाने के लिए अनेक दोषों का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें विरोध का अभाव है। तथा साधन और दूषण देने में अनेक सहारों के लेने की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। इस बात का अन्य ग्रन्थों में हमारे द्वारा विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। ___ इस समय प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान का विचार करने के लिए श्री विद्यानन्द आचार्य उपायपूर्वक कहते हैं - वादी के पक्ष का दूसरे प्रतिवादी के द्वारा निषेध किये जाने पर यदि वादी उसके परिहार की इच्छा से अपने प्रतिज्ञा किये गये अर्थ का निह्नव करता है तो वह वादी का प्रतिज्ञा संन्यास नामक निग्रह स्थान है। आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञा संन्यास नामक निग्रह स्थान “प्रतिज्ञाहानि” निग्रह स्थान से पृथक् नहीं है॥१७९॥ शंका - “पक्ष के प्रतिषेध में प्रतिज्ञात अर्थ का अपनयन करना प्रतिज्ञा संन्यास नामक निग्रहस्थान है।" यह न्यायवेत्ता सूत्रकार का वचन है। जो वादी प्रतिवादी द्वारा पक्ष का निषेध कर देने पर पक्ष का परित्याग करता है (पक्ष को छोड़ देता है) उसको प्रतिज्ञा संन्यास नामक निग्रह स्थान समझना चाहिए। जैसे इन्द्रियज्ञान का विषय होने से शब्द अनित्य है - वादी के द्वारा ऐसा कहने पर प्रतिवादी के द्वारा नित्य सामान्य से इन्द्रियजन्यत्व हेतु का खण्डन कर दिया जाता है। इसका उदाहरण पूर्व के समान हैं। तथा सामान्य से
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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