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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 221 यदप्यभाणि तेन, स्वपक्षानपेक्षं च तथा यः स्वस्वपक्षानपेक्षं हेतुं प्रयुक्ते अनित्यः शब्द ऐंद्रियकत्वादिति स स्वसिद्धस्य गोत्वादेरनित्यत्वविरोधाद्विरुद्ध इति। तदप्यपेशलमित्याह हेतावैद्रियकत्वे तु निजपक्षानपेक्षिणि। स प्रसिद्धस्य गोत्वादेरिति तत्त्वविरोधतः॥१६६॥ स्याद्विरोध इतीदं च तद्वदेव न भिद्यते। अनैकांतिकतादोषात्तदभावाविशेषतः॥१६७॥ वादीतरप्रतानेन गोत्वेन व्यभिचारिता। हेतोर्यथा चैकतरसिद्धनासाधनेन किम् // 168 // प्रमाणेनाप्रसिद्धौ तु दोषाभावस्तदा भवेत् / सर्वेषामपि तेनायं विभागो जडकल्पितः॥१६९॥ सोयमुद्योतकरः स्वयमुभयपक्षसंप्रतिपन्नस्त्वनैकांतिक इति प्रतिपद्यमानो वादिनः प्रतिवादिन एव प्रमाणत: सिद्धेन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनेन हेतोर्विरुद्धमुत्तरं ब्रुवाणमतिक्रमेण कथं न्यायवादी? अप्रमाणसिद्धेन तु सर्वेषां तच्चोदनं दोषाभास एवेति तद्विभागं कुर्वन् जडत्वमात्मनो निवेदयति / अत्र निजपक्ष की अपेक्षा नहीं रखने वाले इन्द्रियज्ञान विषय हेतु के होने पर नैयायिकों के वह हेतुविरुद्ध होता है। क्योंकि उनके सिद्धान्त में प्रसिद्ध गोत्व आदि सामान्य तत्त्व से विरोध आता है। इसलिए यह हेतु प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान है। ऐसा उद्योतकर का कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि धूम, व्यापकत्व आदि को सिद्ध करने के लिए दिये गये अग्नित्व, प्रमेयत्व आदि व्यभिचारी हेत्वाभासों के समान यह ऐन्द्रियकत्व हेतु के प्रति कथित विरुद्ध दोष अनैकान्तिक दोष से पृथक् नहीं है। क्योंकि हेतु के साथ अविनाभाव सम्बन्ध का अभाव होने से दोनों में कोई विशेषता नहीं है। इसलिए इस हेतु को प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रह स्थान न मानकर अनेकान्त दोष में गर्भित कर लेना चाहिए।१६६-१६७॥ जैसे वादी और प्रतिवादी दोनों के यहाँ प्रसिद्ध गोत्व सामान्य के द्वारा हेतु का व्यभिचार दोष है, उसी प्रकार वादी वा प्रतिवादी दोनों में किसी एक के यहाँ प्रसिद्ध गोत्व जाति के द्वारा व्यभिचार आ सकता है। तब साध्य को सिद्ध नहीं करने वाले अहेतु से क्या प्रयोजन है? जब वादी और प्रतिवादी दोनों का ही पक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं होने पर दोष का अभाव है, ऐसा यदि कहा जाता है तो सभी के यहाँ यह विभाग करना जड़ पुरुषों के द्वारा कल्पित किया गया है।।१६८-१६९ // - आचार्य कहते हैं कि यह उद्योतकर विद्वान् स्वयं इस तत्त्व को समझ रहा है कि वादी प्रतिवादी दोनों के पक्षों में जो संप्रतिपन्न है (सम्यग्ज्ञान हो जाता है), वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इस प्रकार वादी वा प्रतिवादी के दर्शन में प्रमाण से सिद्ध गोत्व आदि सामान्य हेतु के द्वारा व्यभिचार दोष की तर्कणा से विरुद्ध उत्तर को कहने वाला हेतु का अतिक्रमण कर रहा है वह न्यायवादी कैसे हो सकता है? क्योंकि वादी और प्रतिवादी सभी के ही अप्रमाण सिद्ध (प्रमाण से असिद्ध) हेतु के द्वारा अनैकान्तिक हेत्वाभास की शंका उठाना दोषाभास ही है। अत: उस विरुद्ध उत्तर रूप प्रतिज्ञा विरोध निग्रह स्थान अनैकान्तिक हेत्वाभास का विभाग करने वाले उद्योतकर पण्डित स्वकीय जड़पने को व्यक्त कर रहे हैं। अपनी मूर्खता का निवेदन कर रहे हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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