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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 154 कालभेदेप्यभिन्नार्थः / कालकारकलिंगसंख्यासाधनभेदेभ्यो भिन्नोऽर्थो न भवतीति स्वरुचिप्रकाशनमात्रं / कालादिभेदाद्भिन्नोर्थः इत्यत्रोपपत्तिमावेदयति शब्दः कालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादकः। कालादिभिन्नशब्दत्वात्तादृक्सिद्धान्यशब्दवत्७५ सर्वस्य कालादिभिन्नशब्दस्याभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेनाभिमतस्य विवादाध्यासितत्वेन पक्षीकरणात्र केनचिद्धे-तोर्व्यभिचारः। प्रमाणबाधित: पक्षः इति चेन्न, कालादिभिन्नशब्दस्याभिन्नार्थत्वग्राहिणः प्रमाणस्य भिन्नार्थग्राहिणा प्रमाणेन बाधितत्वात्॥ समभिरूढमिदानी व्याचष्टेपर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् / नयः समभिरूढः स्यात् पूर्ववच्चास्य निश्शयः // 76 // विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रेति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात्। क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्यः तारकोडुः आपो वा: अंभः सलिलमित्यादिपर्यायभेदेपि. काल के भेद होने पर भी अर्थ अभिन्न ही है, काल, कारक, लिंग, संख्या साधन के भेद हो जाने भिन्न नहीं हो पाता है। इस प्रकार वैयाकरणों का कथन अपनी मनमानी रुचि का प्रकाशन करना है। वस्तुत: विचारा जाए तो काल आदि के भेद से अर्थ में भेद हो जाता है। इस विषय में ग्रन्थकार युक्ति का स्वयं निवेदन करते हैं। शब्द (पक्ष) काल, कारक आदि को करके भिन्न-भिन्न अर्थ का प्रतिपादन कर रहा है। क्योंकि, वे काल, उपसर्ग आदि के सम्बन्ध से रचित भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्द हैं, जैसे उस प्रकार के सिद्ध अन्य घट, पट, इन्द्र, पुस्तक आदि शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रतिपादक हैं॥७५॥ वैयाकरणों ने काल, कारक, आदि से भिन्न जिन शब्दों को अभिन्न अर्थ का प्रतिपादक अभीष्ट कर रखा है, उस विवाद में प्राप्त हो रहे सभी शब्दों को यहाँ अनुमान प्रयोग में पक्ष कोटि में कर लिया गया है। अत: किसी भी शब्द में हमारे हेतु का व्यभिचार दोष नहीं हो पाता है। सच्चा प्रतिज्ञारूपी पक्ष तो प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाणों से बाधित है। क्योंकि काल आदि के योग से भिन्न शब्द के अभिन्न अर्थपने को ग्रहण करने वाले प्रमाण (ज्ञान) को उनके भिन्न-भिन्न अर्थको ग्रहण करने वाले प्रमाण करके बाधा प्राप्त हो जाती है। शब्द नय का विस्तार के साथ वर्णन कर श्री विद्यानन्द स्वामी अब क्रमप्राप्त समभिरूढ़ नय का व्याख्यान करते हैं - पर्यायवाची शब्दों के भेद से भिन्न-भिना अर्थ का अधिरोह हो जाने से यह नय समभिरूढ़ हो जाता है। पूर्व के समान इसका निश्चय कर लेना चाहिए। अर्थात् व्यवहार नय की अपेक्षा शब्द नय द्वारा गृहीत अर्थ में जैसे भिन्न अर्थपना सिद्ध किया गया है, उसी प्रकार शब्द नय से समभिरूढ़ नय के भिन्न होने का विचार कर लेना चाहिए // 76 / / विश्व को देख चुका, सबको देख चुका आदि पर्यायवाची शब्दों के भेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मान रहा है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लुट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी काल
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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