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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 108 नुषंगात् कस्यचित्तद्रूपस्यासिद्धस्याभावाद्, असिद्धरूपतायां वा नियोज्यत्वं विरोधाद्वंध्यास्तनंधयादिवत् / सिद्धरूपेण नियोज्यत्वे असिद्धरूपेण वानियोज्यतामेकस्य पुरुषस्यासिद्धसिद्धरूपसंकरानियोज्येतरत्वविभागासिद्धिस्तद्रूपासंकरे वा . भेदप्रसंगादात्मनः सिद्धासिद्धरूपयो: संबंधाभावोऽनुपकारात् / उपकारकल्पनायामात्मनस्तदुपकार्यत्वे नित्यत्वहानिस्तयोरात्मोपकार्यत्वे सिद्धरूपस्य सर्वथोपकार्यत्वव्याघातोऽसिद्धरूपस्याप्युपकार्यत्वे गगनकुसुमादेरुपकार्यत्वानुषंगः। सिद्धासिद्धरूपयोरपि कथंचिदसिद्धरूपोपगमे प्रकृतपर्यनुयोगानिवृत्तेरनवस्थानुषंग इत्युपालंभः। तथा विधीयमानस्य पुरुषस्य धर्मे विधावपि सिद्धस्य पुंसो प्रकार नियोजने योग्य पुरुष का धम यदि नियोग माना जावेगा तो अद्वैतवादियों की ओर से प्रभाकरों के प्रति अनुष्ठान नहीं करने योग्य आदि दोष दिये जाते हैं यानी नियोज्य पुरुष अनादिकाल से स्वत: सिद्ध नित्य है तो उस आत्मा का स्वभाव नियोग भी पूर्वकालों से सिद्ध है। अन्यथा, सिद्ध पदार्थ का भी अनुष्ठान किया जाएगा तो अनुष्ठान करने से विराम लेने के अभाव का प्रसंग आयेगा। नित्य पुरुष के धर्म उस नियोग का कोई भाग असिद्ध नहीं है। किसी असिद्धरूप को नियोज्य माना जायेगा तब तो वंध्यापुत्र, अश्वविषाण आदि के समान सर्वथा असिद्ध पदार्थ को नियोज्यपने का विरोध होगा। यदि आत्मा के धर्म नियोग को किसी एक सिद्ध स्वरूप के द्वारा नियोज्यपना और उस ही नियोग को असिद्ध स्वरूप की अपेक्षा अनियोज्यपना माना जाएगा तब तो एक आत्मा के सिद्ध स्वरूप और असिद्ध स्वरूपों का संकर होजाने से नियोज्यपन और अनियोज्यपन के विभाग की असिद्धि हो जाएगी। यदि उन सिद्ध असिद्ध रूपों का संकर होना नहीं मानोगे तो उन भिन्न दो रूपों से अभिन्न हो रहे आत्मा के भेद हो जाने का प्रसंग आ जाएगा। वे सिद्ध असिद्ध दो रूप आत्मा के हैं। इस व्यवहार का नियामक सम्बन्ध कोई नहीं है। क्योंकि उपकार करने से स्वस्वामिसंबंध, गुरु-शिष्य सम्बन्ध माने जाते हैं। किन्तु उपकार नहीं होने के कारण उन सिद्ध असिद्ध रूप और कूटस्थ नित्य आत्मा का कोई षष्ठी विधायक सम्बन्ध नहीं हो पाता है। यदि आत्मा और उन रूपों में उपकार करने की कल्पना की जायेगी तो उन दो रूपों करके आत्मा के ऊपर उपकार किया जायेगा? अथवा आत्मा द्वारा दो रूपों पर उपकार किया जाएगा? प्रथम विकल्पानुसार यदि उन दो रूपों द्वारा आत्मा को उपकार प्राप्त करने योग्य माना जायेगा, तब तो आत्मा के नित्यपने की हानि हो जायेगी। क्योंकि जो उपकृत होता है, वह कार्य होता है। द्वितीय विकल्प अनुसार उन दो रूपों को आत्मा के द्वारा उपकार प्राप्त करने योग्य मानोगे तो पहिला दोष टल गया किन्तु सिद्ध हो चुके रूप को तो सभी प्रकारों से उपकार्यपन का व्याघात होगा। क्योंकि जो सिद्ध हो चुका है, उसमें उपकार को धारने योग्य कोई उत्पाद्य अंश शेष नहीं है। और दूसरे असिद्ध रूप को भी यदि उपकार प्राप्त करने योग्य माना जायेगा,तब तो आकाश पुष्प, शशविषाण आदि असिद्ध पदार्थों को भी उपकार झेलने वाले पन का प्रसंग आवेगा। यदि नियोगवादी सिद्ध असिद्ध दोनों रूपों का भी कथंचित् कोई स्वरूप असिद्ध हो रहा स्वीकार करेंगे तो प्रकरण प्राप्त शंका की निवृत्ति नहीं हो सकेगी। अत: अनवस्था दोष का प्रसंग हो जायेगा। इस प्रकार विधिवादीका नियोगवादी के प्रति उलाहना है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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