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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 103 प्रधानता तस्य विरुध्येतं। नापि सत्यत्वे द्वैतसिद्धिः आत्मस्वरूपव्यतिरेकेण तदभावात्, तस्यैकस्यैव तथा प्रतिभासनात् इति / तदप्यसत्यं / नियोगादिवाक्यार्थस्य निश्चयात्मतया प्रतीयमानत्वात् / तथाहिनियोगस्तावदग्निहोत्रादिवाक्यादिवत द्रष्टव्यो रेऽयमात्मा इत्यादिवचनादपि प्रतीयते एव नियक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगः प्रतिभाति मनागप्ययोगाशंकानवतारादवश्यकर्तव्यतासंप्रत्ययात् / कथमन्यथा तद्वाक्यश्रवणादस्य प्रवृत्तिरुपपद्यते, मेघध्वन्यादेरपि प्रवृत्तिप्रसंगात्। स्यादेतत् / मिथ्येयं प्रतीतिर्नियोगस्य विचार्यमाणस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगात्। स हि प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादतत्स्वभावो वा? प्रथमकल्पनायां प्राभाकराणामिव ताथागतादीनामपि प्रवर्तकः स्यात् / सर्वथा प्रवर्तकत्वात् / तेषां विपर्यासादप्रवर्तक इत्यपि न निश्चेतुं शक्यं परेषामपि विपर्यासात्प्रवर्तकत्वादनुषंगात् / प्राभाकरा हि विपर्यस्तमनसः शब्दनियोगात् प्रवर्तते असत्य नहीं है। जिससे कि उस विधि को प्रधानरूप से वाक्य-अर्थपना विरुद्ध पड़ जाता। जैन या मीमांसकों ने विधि के सत्य (यथार्थपना) होने पर द्वैतसिद्धि हो जाने का प्रसंग दिया था, सो ठीक नहीं है। क्योंकि आत्मस्वरूप के अतिरिक्त उस विधि का अभाव है। विधायकपन, विधीयमानपन और भावविधि द्वारा उस एक ही परमब्रह्म का प्रतिभास हो रहा है। विधि के असत्यपने का तो पक्ष ही नहीं है। - अद्वैतवादियों का यह कहना भी असत्य है, क्योंकि वाक्य के अर्थ नियोग, भावना आदि की भी निश्चय स्वरूप से प्रतीति हो रही है। उसी को प्रसिद्ध कर कहते हैं कि अग्निहोत्र ज्योतिष्टोम, आदि के प्रतिपादक वाक्यों आदि से जैसे नियोग प्रतीत होता है वैसे ही “दृष्टव्योरेयमात्मा श्रोतव्यः" इत्यादि वचन से भी नियोग प्रतीत होता है। "दृष्टव्योरे" मैं इस वाक्य के द्वारा नियुक्त हो गया हूँ। इस प्रकार शेष रहित परिपूर्णरूप से योग हो जाना रूप नियोग प्रतिभासित होता है। यहाँ योग नहीं होने की आशंका का लव मात्र भी अवतार नहीं है। अत: अवश्य करने योग्य है। इस प्रकार का ज्ञान होता है। अन्यथा (अद्वैतप्रतिपादक वाक्यों द्वारा पूर्ण योग होना नहीं माना जायेगा तो) उस 'दृष्टव्यो" आदि वाक्यों के सुनने से इस श्रोता मनुष्य की श्रवण, मनन आदि करने में प्रवृत्ति होना कैसे सिद्ध हो सकता है? इतिकर्तव्यतारूप नियोग के ज्ञान बिना ही यदि चाहे जिस शब्द से प्रवृत्ति होना मान लिया जाएगा तो मेघगर्जन, समुद्रपूत्कार आदि शब्दों से भी श्रोताओं की प्रवृत्ति हो जाने का प्रसंग आयेगा। अद्वैतवादियों का यदि यह मन्तव्य हो कि वाक्य का अर्थ तो नियोग नहीं हो सकता है। अत: अद्वैत प्रतिपादक वाक्यों से नियोग की यह उक्त प्रकार प्रतीति करना मिथ्या है। क्योंकि विचार्यमाण नियोग के प्रवृत्ति का हेतुपना घटित नहीं होता है। इनका प्रश्न है कि तुम्हारा माना गया नियोग क्या प्रवर्तक स्वभाव का धारक है? अथवा अप्रवर्तकी स्वभाव का धारक है। यदि प्रथमपक्ष की कल्पना करोगे तब तो प्रभाकरों के समान बौद्धों को भी वह नियोग अग्निष्टोम आदि कर्मों में प्रवर्तक हो जायेगा। क्योंकि उस नियोग का स्वभाव सभी प्रकार से प्रवृत्ति करा देना है। यदि नियोगवादी यों कहें कि उन बौद्धों को मिथ्याज्ञान हो रहा है। अत: नियोग उनको प्रवृत्त नहीं कराता है। परन्तु इस बात का भी निश्चय नहीं किया जा सकता है। तथा दूसरे प्रभाकरों के भी विपर्ययज्ञान हो जाने से नियोग को प्रवर्तकपने का प्रसंग होगा। क्योंकि प्रभाकरों का
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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