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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 96 स एव ब्रह्मवादः। अनुभयस्वभावो नियोग इति चेत् तर्हि संवेदनमात्रमेव पारमार्थिकं तस्य कदाचिदहेयत्वात् तथाविधत्वसंभवात् सन्मात्रदेहतया निरूपितत्वादिति वेदांतवाद एव। शब्दव्यापारो नियोग इति चेत् भट्टमतप्रवेशः, शब्दव्यापारस्य शब्दभावनारूपत्वात्। पुरुषव्यापारो नियोग इति चेत्, स एव दोष: तस्यापि भावनारूपत्वात्; शब्दात्मव्यापाररूपेण भावनाया द्वैविध्याभिधानात्। तदुभयरूपो नियोग इत्यनेनैव व्याख्यातं। तदनुभयव्यापाररूपत्वे तन्नियोगस्य विषयस्वभावता, फलस्वभावता, नि:स्वभावता, वा स्यात्? प्रथमपक्षे यागादिविषयस्याग्निष्टोमादिवाक्यकाले विरहात् तद्रूपस्य नियोगस्यासंभव एव। संभवे वा न वाक्यार्थो के मत का प्रवेश सम्भव ना हो? अपितु वेदान्तवाद के मत का प्रवेश सम्भव है। तृतीय पक्ष के अनुसार प्रमाण और प्रमेय दोनों स्वभाव वाला नियोग है। ऐसा कहने पर तो नियोग चैतन्य परब्रह्म का परिणाम सिद्ध हो जाता है। अन्यथा नियोग का प्रमाणपना नहीं बन सकता। अर्थात् जो वस्तु प्रमाण प्रमेय उभयरूप है, वह चैतन्यात्मक अवश्य है। और उस प्रकार होने पर वह सत् चिद् आनंद स्वरूप आत्मा ही प्रमाण प्रमेय इन उभय स्वभावों से अपने को दिखलाती हुई नियोगस्वरूप हो रही है। इस प्रकार वही ब्रह्म अद्वैतवाद का अनुसरण करना प्राभाकरों के लिए प्राप्त होता है। चतुर्थपक्ष के अनुसार यदि प्रमाण प्रमेय दोनों स्वभावों से रहित नियोग माना जायेगा तब तो केवल शुद्ध संवेदन ही वास्तविक पदार्थ सिद्ध होता है। क्योंकि किसी भी काल में वह शुद्धसंवेदन त्यागने योग्य नहीं है। तथा सर्वदा प्रमाणपन, प्रमेयपन उपाधियों से रहित होता हुआ शुद्ध प्रतिभास ही सम्भव है। केवल सत् स्वरूप से शरीर को धारने वाले के द्वारा उस प्रतिभास का ही निरूपण किया गया है। इस प्रकार प्राभाकरों के यहाँ वेदान्तवाद ही घुस जाता है। पाँचवें पक्ष के अनुसार “अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत्" स्वर्गप्राप्ति की अभिलाषा रखने वाला जीव अग्निष्टोम करके यज्ञ करे, इत्यादि शब्दों के व्यापार स्वरूप नियोगं है, तब तो कुमारिल भट्ट के मत का प्रवेश हो जाता है। क्योंकि भट्ट ने शब्द के व्यापार को ही शब्द की भावना स्वीकार की है। - छठे पक्ष के अनुसार यदि आत्मा के व्यापार को नियोग मानेंगे तब भी वही दोष होगा। यानी प्राभाकरों को भट्ट मत का अनुसरण करना होगा। क्योंकि पुरुष का व्यापार भी भावनास्वरूप है। भट्टों ने शब्द व्यापार और आत्मव्यापार स्वरूप से भावना का दो प्रकार से कथन किया है। सातवें पक्ष के अनुसार -यदि शब्द और पुरुष मिले हुए दोनों के व्यापार स्वरूप नियोग को मानेंगे तो वह उनका वक्तव्य भी इस उक्त कथन से व्याख्यायित कर दिया गया है। अष्टम पक्ष के अनुसार प्रभाकर द्वारा उस नियोग को शब्द व्यापार और पुरुषव्यापार दोनों से रहित मानने पर भाट्ट प्रश्न करेंगे कि क्या वहाँ उस नियोग में यज्ञ आदि कर्मरूप विषय स्वभाव है? या स्वर्ग आदि फलस्वभाव है? अथवा प्रसज्यपक्ष को अंगीकार करने पर वह नियोग सभी स्वभावों से रहित है? पहिला पक्ष लेने पर तो अग्निष्टोम करके याग करना चाहिए। इस वाक्य उच्चारण के समय में याग आदि विषयों का अभाव है। अतः यज्ञस्वरूप नियोग की भी सम्भावना नहीं है। और यदि भविष्य में होने वाले यज्ञ की
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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