SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 70 तथैवास्त्वर्थयाथात्म्याभावज्ञानं स्वत: सताम् / अर्थान्यथात्वविज्ञानं प्रमाणत्वापवादकम् // 100 // विज्ञानकारणे दोषाभावः प्रज्ञायते गुणः। यथा तथा गुणाभावो दोषः किं नात्र मन्यते // 101 // यथा च जातमात्रस्यादुष्टा नेत्रादयः स्वतः / जात्यंधादेस्तथा दुष्टाः शिष्टैस्ते किं न लक्षिताः॥१०२॥ धूमादयो यथाग्न्यादीन् विना न स्युः स्वभावतः। धूमाभासादयस्तद्वत्तैर्विना संत्यबाधिताः॥१०३॥ ___ भावार्थ : अर्थ का विपरीतपन अप्रमाणपने को उत्पन्न कराता है और उसका अभाव स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न हो जाने का प्रयोजक हो जाता है; अन्यथापन के अभाव का ज्ञान कोई पृथक् स्वतंत्र हेतु नहीं है, जिसे उत्पन्न प्रमाणपना कहा जाए, किन्तु अर्थ के विपरीतपन का अभाव जानना ही तो अर्थ के यथार्थपन का जानना है अत: वह अर्थ के अन्यथापन से उत्पन्न होने वाले अप्रमाणपन का बाधक होकर ज्ञान में स्वत: प्रमाणपना करा देता है। अप्रमाणपन को टालने के लिए ही अन्य कारण की आवश्यकता है। प्रमाणपना तो स्वतः प्राप्त हो जाता है। आचार्य कहते हैं, इसमें यह भी कहा जा सकता है कि अर्थ के यथार्थपन के अभाव का ज्ञान ही अर्थ के अन्यथापन का विज्ञान है। . ___ वह प्रमाणपने का अपवाद करने वाला होकर विद्यमान सब ज्ञानों के स्वत: अप्रमाणपन का व्यवस्थापक हो जाता है। अत: प्रमाण और अप्रमाण दोनों को परत: मानना चाहिए। एक को स्वत: और दूसरे को परतः मानना उचित नहीं है॥१०० // जैसे विज्ञान के कारण में दोषों का अभाव ही गुण कहा जाता है, वैसे ही प्रमाण में गुणों के अभाव को दोष क्यों नहीं माना जाता है? // 101 // . भावार्थ : जैसे गुण कोई स्वतंत्र होकर पृथक् हेतु नहीं है; दोष का अभाव ही गुण है। उसी प्रकार दोष कोई भिन्न स्वतंत्र हेतु नहीं है। किन्तु गुणों का अभाव ही दोष है। ऐसी दशा में परत: प्रमाणता को उत्पन्न कराने वाले गुणों का अन्य कारणों द्वारा निराकरण हो जाने से स्वत: ही अप्रमाणपन आ जाता है। यहाँ ऐसा क्यों नहीं माना जाता है? जिस प्रकार तत्काल उत्पन्न हुए बच्चे के भी नेत्र, कान आदिक स्वत: ही अदुष्ट जाने जा रहे हैं, उसी प्रकार जन्म से अन्धे पुरुष के नेत्र भी स्वत: ही दुष्ट या निर्गुण हो रहे हैं। इस प्रकार शिष्टों के द्वारा क्यों नहीं देखे गये हैं? अतः अदुष्टपना या निर्गुणपना किसी का भी निज गाँठ का स्वरूप नहीं कहा जा सकता है॥१०२॥ यदि कहो कि अग्नि आदिक साध्यों के बिना धूम आदिक हेतु स्वभाव से ही नहीं होते हैं (अतः अविनाभावसहितपना धूमहेतु का स्वात्मलाभ है) तो उसी प्रकार धूमसदृश दिखने वाले धूमाभास आदिक हेत्वाभास भी तो उन अग्निसदृश दिखने वाले अग्र्याभास आदि के बिना नहीं हो सकते हैं अतः धूमाभास आदिक भी अबाधित होकर स्वभाव से स्वतः अप्रमाणपन के व्यवस्थापक हो जायेंगे, यानी प्रमाणपन के समान अनुमान में अप्रमाणपन की भी स्वतः व्यवस्था हो जाएगी उसे कौन रोक सकता है ? // 103 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy