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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 48 मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः। यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता // 38 // यदि सम्यगेव ज्ञानं प्रमाणं तदा चंद्रद्वयादिवेदनं वावल्यादौ प्रमाणं कथमुक्तमिति न चोद्यं, तत्र तस्याविसंवादात् सम्यगेतदिति स्वयमिष्टेः / कथमियमिष्टिरविरुद्धेति चेत्, सिद्धांताविरोधात्तथा प्रतीतेश्च // स्वार्थे मतिश्रुतज्ञानं प्रमाणं देशत: स्थितं। अवध्यादि तु कात्स्न्र्येन केवलं सर्ववस्तुषु // 39 // स्वस्मिन्नर्थे च देशतो ग्रहणयोग्यतासद्भावात् मतिश्रुतयोर्न सर्वथा प्रामाण्यं, नाप्यवधिमन:पर्यययो: सर्ववस्तुषु केवलस्यैव तत्र प्रामाण्यादिति सिद्धांताविरोध एव “यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता” इति वचनस्य प्रत्येयः। प्रतीत्यविरोधस्तूच्यते - ___ इस सूत्र में सम्यक् का अधिकार चला आ रहा है अतः संशय आदि मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं हैं क्योंकि जिस प्रकार जहाँ पर अविसंवाद है, वहाँ उस प्रकार प्रमाणपना व्यवस्थित है।॥३८॥ समीचीन ज्ञान ही यदि प्रमाण है तो बावड़ी आदि में प्रतिबिम्ब के वश हुए दो चन्द्रमा आदि का ज्ञान प्रमाण कैसे कह दिया गया है? यह समीचीन ज्ञान तो नहीं है इस प्रकार का आक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि वहाँ उस ज्ञान का अविसंवाद है और अन्य वादियों ने भी यह ज्ञान समीचीन है', इस प्रकार विवाद किये बिना स्वयं इष्ट कर लिया है। इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका : इस प्रकार इष्ट करना अविरुद्ध कैसे है? / समाधान : एक पदार्थ के अनेक निमित्त मिलने पर नाना प्रतिबिम्बों के पड़ जाने में कोई सिद्धान्त से विरोध नहीं आता है इस प्रकार की प्रतीति भी होती है। दो चन्द्रमा का ज्ञान भी कथंचित् प्रमाण है, सर्वथा नहीं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अपने विषय स्व और अर्थ में एकदेश से, अवधि और मन:पर्यय अपने नियत विषयों में पूर्णपने से तथा केवलज्ञान सम्पूर्ण वस्तुओं में पूर्णरूप से विशद है, अतः पाँचों ज्ञान प्रमाणभूत हैं॥३९॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अपने को और अर्थ को एकदेश से ग्रहण करने की योग्यता विद्यमान हैअत: सर्वथा उनमें प्रामाण्यपना नहीं है तथा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में भी सभी प्रकारों से प्रमाणता नहीं है। सम्पूर्ण वस्तुओं में केवलज्ञान को ही स्व और अर्थ को जानने में प्रमाणता है अर्थात् सर्व द्रव्यों और उनकी सर्व पर्यायों को जानने की योग्यता केवलज्ञान में ही है, अन्य ज्ञानों में नहीं है अत: जैन सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि जहाँ जिस प्रकार अविसंवाद है, वहाँ उस प्रकार प्रमाणता मानी जाती है, यह वचन विश्वास करने योग्य है। अर्थात् संक्षेप में यही कहना है कि मति और श्रुतज्ञान पूर्ण अंशों में प्रमाण नहीं हैं, एकदेश से प्रमाण हैं। तथा अवधि और मनःपर्यय अपने नियत विषयों में पूर्णता से प्रमाण हैं क्योंकि इनकी परतंत्रता बहुत घट गई है तथा केवलज्ञान तो कथमपि पराधीन नहीं है, अत: यह सर्वांगरूप से प्रमाण है। जिस प्रकार जितने अंशों में ज्ञान का अविसंवाद हो, उस प्रकार उतने अंशों में प्रमाणता है। इस प्रकार की प्रतीति के अविरोध को अग्रिमकारिकाओं द्वारा कहते हैं -
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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