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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४४ प्रमाणं येन सारूप्यं कथ्यतेऽधिगतिः फलम्। सन्निकर्षः कुतस्तस्य न प्रमाणत्वसंमतः॥३४॥ सारूप्यं प्रमाणमस्याधिगतिः फलं संवेदनस्यार्थरूपतां मुक्त्वार्थेन घटयितुमशक्तेः। नीलस्येदं संवेदनमिति निराकारसंविदः केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षासिद्धेः सर्वार्थेन घटनप्रसक्तेः सर्वैकवेदनापत्तेः। करणादे: सर्वार्थसाधारणत्वेन तत्प्रतिनियमनिमित्ततानुपपत्तेरित्यपि येनोच्यते तस्य सन्निकर्षः प्रमाणमधिगतिः फलं तस्मादतरेणार्थघटनासंभवात् / साकारस्य समानार्थसकलवेदनसाधारणत्वात् केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षेऽसिद्धे सकलसमानार्थेन घटनप्रसक्तेः सर्वसमानार्थैकवेदनापत्तेः, तदुत्पत्तेरिंद्रियादिना व्यभिचारानियामकत्वायोगात्। अनित्यपना सिद्ध है। सर्वथा आत्मा आदि किसी को भी नित्यपना मानने पर अर्थक्रिया होने का विरोध आता है। इस बात को पूर्व में हम कई बार कह चुके हैं। जिस बौद्ध के द्वारा ज्ञान का अर्थ के आकार हो जाना प्रमाण कहा गया है और अर्थ की अधिगति प्रमाण का फल माना गया है, उसके द्वारा सन्निकर्ष भी प्रमाण क्यों नहीं माना जाता है? अर्थात् सन्निकर्ष को भी प्रमाण मानना चाहिए // 34 // बौद्ध कहते हैं कि ज्ञान में अर्थ का सदृश आकारसहितपना प्रमाण है। अर्थात् प्रमाणस्वरूप उस तदाकारता से ही ज्ञान नियत पदार्थों को जानता है और पदार्थ की ज्ञप्ति हो जाना प्रमाण का फल है। ज्ञान का अर्थ के साथ सम्बन्ध कराने के लिए अर्थरूपता को छोड़कर अन्य कोई समर्थ नहीं है (यानी सविकल्पक ज्ञान अर्थ के साथ निर्विकल्पक बुद्धि को तदाकारता के द्वारा जोड़ देता है) उस तदाकारता से अर्थ की ज्ञप्ति हो जाती है अत: ज्ञान में ज्ञेय अर्थ का पड़ा हुआ आकार ही प्रमाण है। यह नील का संवेदन है इत्यादि ज्ञानों में आकार पड़ जाने से ही सम्बन्धयोजक व्यवहार होता है। निराकार ज्ञान का किसी पदार्थ के साथ निकटपन और दूरपन के असिद्ध हो जाने पर सभी पदार्थों के साथ उस ज्ञान की योजना होने के कारण सभी पदार्थों का एक ज्ञान हो जाने की आपत्ति होगी अर्थात् आकार रहित ज्ञान सभी विषयों के जानने का अधिकारी हो जायेगा क्योंकि निराकार ज्ञान के लिए दूरवर्ती, निकटवर्ती और भूत, भविष्यत् के सभी पदार्थ एक से हैं, किसी के साथ कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। ऐसी दशा में एक ही ज्ञान के द्वारा सभी पदार्थों की ज्ञप्ति हो जाने पर इन्द्रिय,मन आदि के ज्ञान में साधारण कारण हो जाने से वे उस ज्ञान का प्रतिनियम कराने के निमित्त नहीं बन सकते हैं (अत: घटज्ञान का घट ही और पटज्ञान का पट ही विषय है इसका नियम करने वाली ज्ञान में पड़ी हुई तदाकारता ही है।) आचार्य कहते हैं कि जिस बौद्ध ने यह कहा है, उसके यहाँ सन्निकर्ष प्रमाण और अधिगति उसका फल है क्योंकि उस सन्निकर्ष के बिना अर्थ के साथ ज्ञान का जुड़ना असम्भव है। (परन्तु बौद्ध सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मानता है।) तथा तदाकारता को सम्पूर्ण समान अर्थों के ज्ञान कराने में साधारणपना होने के कारण किसी एक ही विवक्षित पदार्थ के साथ निकटपना और दूरपना जब सिद्ध नहीं है तो सम्पूर्ण ही ज्ञान अर्थों के साथ सम्बन्धित हो जाने का प्रसंग हो जाने से सभी समान अर्थों का एक ज्ञान हो जाने की आपत्ति आयेगी।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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