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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 384 शक्यते तजसंवित्तेरतो बाधनशंकनं। नि:संशयं पुनर्बाधवर्जितत्वं प्रसिद्ध्यति॥६९॥ कर्तृहीनवचो वित्तेरित्यकृत्रिमतार्थकृत् / परेषामागमस्येष्टं गुणवद्वक्तृकत्वतः // 70 // . साधीयसीति यो वक्ति सोपि मीमांसकः कथं / समत्वादक्षलिंगादेः कस्यचिद्दुष्टता दृशः / / 71 // शब्दज्ञानवदाशंकापत्तेस्तजन्मसंविदः। मिथ्याज्ञाननिमित्तस्य यद्यक्षादेस्तदा न ताः // 72 // तादृशः किं न वाक्यस्य श्रुत्याभासत्वमिष्यते। गुणवद्वक्तृकत्वं तु परैरिष्टं यदागमे // 73 // तत्साधनांतरं तस्य प्रामाण्ये कांचन प्रति। सुनिर्बाधत्वहेतोर्वा समर्थनपरं भवेत् // 74 // मीमांसक कहते हैं कि जगत् के पुरुष राग, द्वेष, अज्ञान, स्वार्थ, पक्षपात, ईर्ष्या आदि अनेक दोषों के आश्रय से युक्त हैं अत: उनके द्वारा निर्मित पौरुषेय वचनों में दुष्टता है। क्योंकि शब्दों को बनाने वाले हेतु पुरुष दुष्ट हैं अत: ऐसे उन दोषयुक्त हेतुओं से उत्पन्न हुए शाब्दबोध के बाधकों की शंका की जा सकती. है। संशयरहित होकर बाधवर्जितपना कर्ताहीन अपौरुषेय वचनों से उत्पन्न सम्वित्ति के ही प्रसिद्धि है इसलिए वेद का अकृत्रिमपना ही अर्थकृत है। (वेद का अकृत्रिमपना व्यर्थ नहीं है।) दूसरे वादी जैनों के यहाँ आगम का गुणवान वक्ता द्वारा उच्चारित शब्दों से जन्यपना होने के कारण प्रमाणपना इष्ट किया गया है। उसकी अपेक्षा वेद का अकृत्रिमपना ही श्रेष्ठ है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाला मीमांसक भी समीचीन . विचार करने वाला कैसे समझा जा सकता है? क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष के कारण इन्द्रियाँ और अनुमान के कारण ज्ञापक हेतु तथा उपमान के कारण सादृश्य आदि को भी समानपने से नित्यता मानने का प्रसंग आयेगा। किसी दोषी पुरुष द्वारा बोले गए शब्द से उत्पन्न हुए ज्ञान समान किसी-किसी पुरुष के नेत्रों के भी दोषों से सहितपना देखा जाता है अत: उन चक्षु, लिंग, सादृश्य आदि से उत्पन्न हुए सभी ज्ञानों को अप्रमाणपन की आशंका का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। यदि मीमांसक कहें कि मिथ्याज्ञान के निमित्त अक्ष, लिंग आदि से समीचीन ज्ञान के कारण अक्ष आदि भिन्न हैं अत: समीचीन अनित्य चक्षु आदि से उत्पन्न हुई वे सम्वित्तियाँ दुष्ट कारणजन्य नहीं हैं, दुष्ट, इन्द्रिय आदि से उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष आदि तो प्रत्यक्षाभास, अनुमानाभास, उपमानाभास कहे जाते हैं। तब तो हम जैन कह देंगे कि जिस प्रकार के दोषयुक्त पुरुषों के वाक्यों को भी श्रुति आभासपना क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाए? दोषयुक्त पुरुषों के वाक्यों से उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुताभास है अथवा वेद की श्रुतियाँ भी जो बाधा सहित अर्थों को कर रही हैं, वे श्रुति-आभास हैं // 6869-70-71-72 / अदुष्टकारणजन्यत्व में न का अर्थ पर्युदास संग्रहण करने पर गुणवान है वक्ता जिसका, ऐसा गुणवत् वक्तृकपना तो दूसरों (स्याद्वादी विद्वानों) के द्वारा आगम में इष्ट किया गया है अथवा कृत्रिम, स्मृति, जैमिनि सूत्र आदि आगमों में दूसरे मीमांसकों ने गुणवान वक्ता के द्वारा प्रतिपादितपना जो अभीष्ट किया है, वह तो वेद का किन्हीं-किन्हीं विद्वानों के प्रति प्रमाणपना साधने में एक दूसरा साधन उपस्थित हो जाता है। अथवा बाधारहितपन हेतु से भी उस प्रमाणपन को साधने वाले ज्ञापकों का उत्कृष्ट समर्थन हो जाता
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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