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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 365 न चक्षुषोपलब्धिरिति सर्वं समं पश्यामः / ततो यदि गंधादीनां शश्वदस्वतंत्रत्वान्महत्त्वाद्युपेतत्वाभावादाख्यातो न द्रव्यत्वं तदा शब्दस्यापि न तत्। ननु शब्दस्याद्रव्यत्वेप्यसर्वगतद्रव्याश्रयत्वे कथं सकृत्सर्वत्रोपलंभः यथा गंधादेः समानपरिणामभृतां पुद्गलानां स्वकारणवशात् समंततो विसर्पणात्। वृक्षाव्यवहितानां विसर्पणं कथं न तेषामितिचेत् , यथा गंधद्रव्यस्कंधानां तथा परिणामात् तदेव गंधादिकृतप्रतिविधानतया दूरादेकोत्करः शब्दे समस्तो नावतरतीति तद्वत्प्राप्तस्येंद्रियेण ग्रहणं निरारेकमवतिष्ठते तथा प्रतीतेरित्याह; तब शब्द को भी सदा स्वतंत्र नहीं होने के कारण मुख्य महत्त्व आदि से सहितपना नहीं बन सकेगा। अतएव वह शब्द भी द्रव्य नहीं हो सकेगा। अर्थात् - दोनों में कोई अन्तर नहीं दीखता है। शंका : शब्द को अद्रव्य होने पर असर्वगत द्रव्य के आश्रय रहने वाला मानोगे तो एक ही समय में सर्वत्र कोसों तक चारों ओर शब्द का उपलम्भ कैसे होगा? समाधान : जैसे गन्ध, स्पर्श आदि अद्रव्य होते हुए और असर्वगत द्रव्य के आश्रित होते हुए भी कुछ दूर तक सब ओर उपलम्भ हो जाते हैं। एक सा सुगन्धित या उष्णनाम के समान परिणाम के धारक पंक्तिबद्ध पुद्गलों का अपने-अपने कारणों के वश से दशों दिशाओं में सब ओर से फैलना हो जाता है। भावार्थ : तीव्र सुगन्ध, दुर्गन्ध वाले पदार्थों के निकटवर्ती पुद्गलों की वैसी ही सुगन्ध, दुर्गन्धरूप परिणति दूर तक होती जाती है। कुछ परिणतियाँ तो इतनी सूक्ष्म हैं कि इन्द्रियाँ उनको नहीं जान पाती हैं। यही व्यवस्था शब्द में भी लगा लेना चाहिए। वक्ता के मुख से शब्द के निकलते ही शब्द परिणतियोग्य पुद्गल स्कन्धों का सब ओर लहरों के सदृश शब्दनामक परिणाम हो जाता है। जिस जीव को जितने दूर के शब्द को सुनने की योग्यता प्राप्त है, वह अपने क्षयोपशम अनुसार उन शब्दों को सुन लेता है। ... वृक्ष, पर्वत आदि से व्यवधान को प्राप्त उन शब्दों का फैलना क्यों नहीं होता है? अथवा वृक्ष, भीति आदि से टकराकर शब्द को भी वहीं गिर जाना चाहिए, फैलना नहीं चाहिए। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि गन्धद्रव्य के स्कन्धों का जैसे टकराकर वहीं गिरना या वहीं फैलना अथवा फैल जाना नहीं होता है, उसी प्रकार पौद्गलिक शब्द स्कन्धों का भी उस प्रकार परिणाम हो जाने से वृक्षादि के द्वारा टकराकर गिरना आदि नहीं होता है, अपितु विसर्जन हो जाता है। अर्थात् कोई-कोई मन्द शब्द मन्द गन्ध के समान नहीं भी फैल पाते हैं। निमित्तों के अनुसार नैमित्तिक भाव बनते हैं अत: इस प्रकार पौद्गलिक शब्द पर की गई शंका गन्ध आदि के लिए किए गए मीमांसकों के प्रतिविधानरूप से उत्तर हो जाता है। इस प्रकार समस्त शंकाओं का पुंज शब्द में दूर ही से अवतीर्ण नहीं हो पाता है। अर्थात् गन्ध के उत्तर से सम्पूर्ण शंकाएँ दूर फेंक दी जाती है अतः उस गन्ध के समान सम्बन्ध को प्राप्त हुए ही शब्द का कर्ण इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण होना निसंशय प्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इस प्रकार प्रतीति हो रही है। इसी बात को ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिक द्वारा स्पष्ट करते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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