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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 361 तेषामप्राप्तानामिंद्रियेण ग्रहणं। कथं मूर्ताः स्कंधाः श्रावणस्वभावाः कुट्यादिना मूर्तिमता न प्रतिहन्यते इति चेत्, तवापि वायवीया ध्वनयः शब्दाभिव्यंजकाः कथं ते न प्रतिहन्यते इति समानं चोद्यं। तत्प्रतिघाते तत्र शब्दस्याभिव्यक्तेरयोगादनभिव्यक्तस्य च श्रवणासंभवादप्रतिघातः तस्य कुट्यादिना सिद्धस्तदंतरितस्य श्रवणान्यथानुपपत्तेरिति चेत् , तत एव शब्दात्मनां पुद्गलानामप्रतिघातोस्तु दृढपरिहारात् / दृष्टो हि गंधात्मपुद्गलानामप्रतिघातस्तद्वच्छब्दानां न विरुध्यते / यदि पुनरमूर्तस्य सर्वगतस्य च शब्दस्य परिकल्पनात्तव्यंजकानामेवाप्रतिघातात् श्रवणमित्यभिनिवेशः तथा गन्धस्यामूर्तस्य कस्तूरिकादिद्रव्यविशेषसंयोगजनितावयवा व्यंजकामूर्तद्रव्यांतरेणाप्रतिहतास्तथा घ्राणहेतवः इति “रस आदि युक्त मूर्त पौद्गलिक शब्द ही कर्ण इन्द्रिय से सुनने योग्य स्वभाव के धारक मूर्तिमान् भीति आदि के द्वारा प्रतिघात को प्राप्त क्यों नहीं होते हैं? इस प्रकार मीमांसकों की ओर से प्रश्न होने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तुम्हारे यहाँ भी शब्द को अभिव्यक्त करने वाली और वायु की बनी हुई वे मूर्तध्वनियाँ भीति आदि के द्वारा प्रतिघात को क्यों नहीं प्राप्त हो जाती हैं? हमारे समान तुम्हारे ऊपर भी प्रश्न वैसा ही खड़ा रहता है। वायु निर्मित उन ध्वनियों का भीति आदि से यदि प्रतिघात होना माना जाता है तो उस भित्ति के द्वारा व्यवहित प्रदेश में प्रथम से विद्यमान नित्य, व्यापक शब्द की अभिव्यक्ति हो जाने का योग नहीं बन सकेगा और ऐसा होने से अप्रकट शब्द का कर्ण इन्द्रिय द्वारा सुनना असम्भव हो जाएगा, अतः उस वायु रचित ध्वनि का भित्ति आदि के द्वारा प्रतिघात नहीं होना अर्थापत्ति से सिद्ध है, क्योंकि उन भीति आदि से व्यवहित शब्द का सुना जाना अन्यथा (व्यंजक वायुओं का अप्रतिघात हुए बिना) नहीं बन सकेगा। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उसी प्रकार भीति के भीतर शब्द का सुना जाना अन्यथा ' (शब्द का अप्रतिघात हुये बिना) असम्भव है। अत: शब्दस्वरूप पुद्गलों का भीति आदि के साथ अप्रतिघात है, ऐसा मानने पर ही उस शंका का दृढ़ रूप से परिहार हो सकता है। गन्ध स्वरूप पुद्गलों का भी भीति आदि के द्वारा प्रतिघात नहीं होता हुआ देखा गया है अतः गन्धपुद्गलों के समान उन शब्द पुद्गलों का भी भीति आदि के द्वारा प्रतिघात नहीं होना विरुद्ध नहीं पड़ता है अर्थात् युक्त ही है। ___ यदि फिर मीमांसक कहे कि हमारे यहाँ शब्द सर्व व्यापक और अमूर्त है अतः शब्द के व्यंजक वायुओं ही के अप्रतिघात (अरोक) हो जाने से शब्दों का श्रवण हो जाता है तो जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसक के द्वारा सिद्धान्त कल्पित करने पर तो अमूर्त गन्ध के भी कस्तूरी आदि द्रव्य विशेषों के संयोग से उत्पन्न हुए अवयव ही व्यंजक हैं और उस प्रकार अन्य मूर्त द्रव्यों से अप्रतिघात को प्राप्त गन्ध के सूंघे जाने में नासिका के सहकारी कारण हैं। अर्थात् इस प्रकार शब्द के समान गन्ध को भी अमूर्त, व्यापक मान लिया जाएगा। ध्वनि के समान गन्ध व्यंजक पदार्थों का ही जाना-आना कल्पित किया जा सकता है। कोई रोकने वाला नहीं है। उसका निराकरण कैसे हो सकता है?
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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