SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 309 यथा नीलं तथा चित्रं रूपमेकं पटादिषु / चित्रज्ञानं प्रवर्तेत तत्रेत्यपि विरुध्यते // 24 // चित्रसंव्यवहारस्याभावादेकत्र जातुचित् / नानार्थेष्विंद्रनीलादिरूपेषु व्यवहारिणाम् // 25 // एकस्यानेकरूपस्य चित्रत्वेन व्यवस्थितेः। मण्यादेरिव नान्यस्य सर्वथातिप्रसंगतः // 26 // यथानेकवर्णमणेर्मयूरादेर्वानेकवर्णात्मकस्यैकस्य चित्रव्यपदेशस्तथा सर्वत्र रूपादावपि स व्यवतिष्ठते नान्यथा ।न ह्येकत्र चित्रव्यवहारो युक्तः संतानांतरार्थनीलादिवत् नाप्यनेकत्रैव तद्वदेवेति निरूपितप्रायम्॥ नन्वेवं द्रव्यमेवैकमनेकस्वभावं चित्रं स्यान्न पुनरेकं रूपं / तथा च तत्र चित्रव्यवहारो न स्यात्। अत्रोच्यते जिस प्रकार नीला एक रूप है, उसी प्रकार कपड़ा आदि में एक चित्ररूप भी देखा जाता है। उनमें चित्ररूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार भी वैशेषिकों का कहना विरुद्ध है क्योंकि चित्र व्यवहार का अभाव होने से नील, पीत आदि रूपों को मिलाकर एक वस्तु में रंग कभी भी नहीं बन सकता है। अर्थात् - सर्वथा एक स्वभाव वाले पदार्थ में चित्रपने का व्यवहार कभी भी नहीं होता है। व्यवहार करने वाले लौकिक पुरुषों का नानारूप वाले इन्द्रनीलमणि, माणिक्य आदि अनेक पदार्थों में या इन मणियों की बनी हुई माला में एक के भी अनेक का चित्रपन का व्यवहार होता है। एक रंग-बिरंगे चित्रपत्र में कढ़े हुए या छपे हुए भूषण, वस्त्र आदि के अनेक रंग दिखलाये जाने पर चित्रपना व्यवहृत हो जाता है। जैन सिद्धांतानुसार अनेक रूप स्वभाव वाले एक पदार्थ की चित्रपना से व्यवस्था होती है। जैसे कि चित्रमणि आदि में चित्रता है। चित्रमणि की अनेक वर्ण रेखायें दीखती रहती हैं। अन्य पदार्थों को चित्रपना नहीं माना गया है। चित्रवर्ण को यदि सर्वथा स्वतंत्र रंग माना जाएगा तो अनेक प्रकार के रंगों के मिश्रण से नाना चित्र मानने पड़ेंगे। तब अतिव्याप्ति या अतिप्रसंग दोष आएगा॥२४,२५,२६॥ जिस प्रकार अनेक वर्णवाले मणि या मयूर, नीलकण्ठ आदि के अथवा अनेक वर्णात्मक कपड़े आदि एक पदार्थ के चित्रपन का व्यवहार लोकप्रसिद्ध है, उसी प्रकार सभी रूप, स्पर्श, रस आदि में भी वह उसी प्रकार से व्यवस्थित है, दूसरे प्रकारों से नहीं, क्योंकि सर्वथा एक स्वभाव पदार्थ में चित्र व्यवहार नहीं है, जैसे कि अन्य नाना सन्तानों के विषयभूत अर्थों के नील, पीत आदि को मिलाकर चित्रपना नहीं बन सकता है। तथा सर्वथा अनेक पदार्थों में भी वह चित्रपना नहीं बन सकता है। जैसे कि अनेक सन्तानों के ज्ञान द्वारा जान लिये गये पृथक्-पृथक् अर्थों के उन भिन्न-भिन्न नील, पीत आदि का मिलकर चित्र नहीं बन सकता है। इस बात को हम प्रायः करके पहिले प्रकरणों में कह चुके हैं। शंका : इस प्रकार अनेक स्वभाव वाला एक द्रव्य ही तो चित्र हो सकेगा, कोई एक रूपगुण तो चित्र नहीं हो सकेगा, और वैसा होने पर उस चित्रवर्ण में चित्रपने का व्यवहार नहीं हो सकता।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy