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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 301 बह्वाद्यवग्रहादीनां परस्परमसंशयम्। प्रत्येकमभिसंबंध: कार्यो न समुदायतः // 2 // बहोः संख्याविशेषस्यावग्रहो विपुलस्य वा। क्षयोपशमतो नुः स्यादीहावायोथ धारणा // 3 // इतरस्याबहोरेकद्वित्वाख्यस्याल्पकस्य वा। सेतरग्रहणादेवं प्रत्येतव्यमशेषतः // 4 // ___ बहुविधस्य व्यादिप्रकारस्य विपुलप्रकारस्य वा तदितरस्यैकद्विप्रकारस्याल्पप्रकारस्य वा, क्षिप्रस्याचिरकालप्रवृत्तेरितरस्य चिरकालप्रवृत्तेः, अनिःसृतस्यासकलपुद्गलोद्गतिमत इतरस्य सकलपुद्गलोद्गतिमतः, अनुक्तस्याभिप्रायेण विज्ञेयस्येतरस्य सर्वात्मना प्रकाशितस्य, ध्रुवस्याविचलितस्येतरस्य विचलितस्यावग्रह इत्यशेषतोवग्रहः संबंधनीयः, तथेहा तथावायस्तथा धारणेति समुदायतोभिसंबंधोनिष्टप्रतिपत्तिहेतुः प्रतिक्षिप्तो भवति। कथं बहुबहुविधयोस्तदितरयोश्च भेद इत्याह;पर्याप्त रूप से सम्बन्ध कर देना चाहिए। समुदायरूप से सम्बन्ध नहीं करना चाहिए। आत्मा के क्षयोपशम होने से संख्याविशेष बहुत का अथवा अधिक परिमाण वाले विपुल पदार्थादि के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान होते हैं। इसी प्रकार इतर सहित के ग्रहण से इतर अर्थात् अबहु यानी एक, दो नामक संख्या विशेष अथवा अल्पपदार्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा हो जाते हैं। इस प्रकार बहुविध आदि और अबहुविध आदि विषयों के अवग्रह, ईहा आदि पूर्णरूप से समझ लेने चाहिए // 2-3-4 // बहु और अबहु के अवग्रह आदि जैसे कह दिये हैं, उसी प्रकार बहुविध यानी तीन, चार आदि बहुत प्रकारों के अथवा विस्तीर्ण प्रकारों के तथा उस बहुविध से इतर यानी एक दो प्रकार के अथवा अन्य प्रकार के विषयों का अवग्रह होता है। क्षिप्र यानी शीघ्र काल में होने वाली प्रवृत्ति का अथवा उससे इतर यानी अधिक काल की प्रवृत्ति का, अनिसृत यानी जिसके सम्पूर्ण पुद्गल ऊपर को नहीं निकल रहे हैं, उसका और तदितर यानी जिसके सम्पूर्ण पुद्गल ऊपर प्रकट हो रहे हैं, उस पदार्थ का जो बिना कहे ही अभिप्राय करके ठीक जान लिया गया है उसका और उससे इतर जो सम्पूर्णरूप से शब्दों द्वारा प्रकाशित कर दिया गया है उस पदार्थ का तथा ध्रुव यानी चलित नहीं हो उसका और इतर यानी विचलित हो रहे उनका अवग्रह होता है। इस प्रकार पूर्ण रूप से बहु आदिक बारह के साथ अवग्रह ज्ञान का सम्बन्ध कर लेना चाहिए, उसी प्रकार ईहा तथा अवाय और धारणा का भी सम्बन्ध कर लेना चाहिए। समुदाय से अभिसम्बन्ध करना अभीष्ट नहीं है, क्योंकि अनिष्ट की प्रतिपत्ति का कारण है। अत: वह खण्डित कर दिया गया है। अर्थात् बहुत प्रकार के, बहुत नहीं कहे गये, निकले हुए पदार्थों का स्थिरता से शीघ्र अवग्रह ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार का समुदित अर्थ अनिष्टबोध का कारण होने से निराकृत कर दिया गया है। इस प्रकार के प्रत्येक पदार्थ को भिन्न-भिन्न अवग्रह, ईहा आदि होते हैं। बहु और बहुविध तथा उनसे इतर एक और एकविध इनमें क्या भेद है? ऐसी आकांक्षा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं बहु धर्म तो व्यक्तिविशेषों के आश्रित है तथा बहुविध जाति के आश्रित विषय है। अत: बहु का
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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